महात्मा रामरत्न थपलियाल- “अपनों ने प्रताड़ित किया और हमने उनके योगदान को भुला दिया..!
(बरिष्ठ पत्रकार व साहित्कार अरुण कुकसाल की कलम से)
कल्जीखाल (पौड़ी गढ़वाल) के पास ही एक गांव है ‘चिलोली’। ‘चिलोली’ में जन्में, बड़े हुए और आजीवन उसी गांव में रहे महात्मा रामरतन थपलियाल अदभुत दिव्य पुरुष थे। बचपन से ही संत प्रवृत्ति, घुमक्कड़ी, वैज्ञानिकता और आध्यात्मिकता का भाव लिए सृजनात्मक लेखन में उनका संपूर्ण जीवन बीता। ‘मुक्ति’, ‘उन्नति’, ‘विश्व दर्शन’, ‘संसार सुराज्य विधान’ और ‘प्रकाशमृतं’ उनकी लिखित पुस्तकें हैं। यह उल्लेखनीय है कि ‘विश्व दर्शन’ पुस्तक को विश्व प्रसिद्धि मिली है।
महात्मा रामरत्न थपलियाल जी की सन् 1930 में प्रकाशित पुस्तक ‘विश्वदर्शन’ को पढ़कर दो बातें एक साथ मेरे मन में कौंधी कि हम कितना कम जानते हैं, अपने आस-पास के परिवेश को और अपनों को। दूसरी बात कि हम पहाड़ी अपने घर-परिवार के लोगों की विद्वता एवं उनके कार्यों का सम्मान और उन्हें सहयोग क्यों नहीं करते हैं।
‘विश्वदर्शन’ किताब दार्शनिक जगत की बहुचर्चित रचना है, विश्चस्तर पर यह पुस्तक जानी जाती है, ‘महात्मा गांधी’, ‘महामना मदन मोहन मालवीय’, ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’, ‘पुरुषोत्तम दास टंडन’, ‘महिर्षि अरविन्द’, आदि ने इस किताब पर महत्वपूर्ण प्रशंसनीय टिप्पणियां दी हैं।
‘पुस्तक में मानवीय जीवन-दर्शन के बहुआयामों को वैज्ञानिक कसौटी पर परखकर रामरत्न थपलियाल जी ने जीवन के गूढ रहस्यों को बताया है। किताब पर बढ़ती बहस को देखते हुए तत्कालीन अग्रेंज शासकों ने इस किताब पर प्रतिबन्ध भी लगाया था।
गढ़वाल के ‘चिलोली’ गांव में सन् 1901को जन्में और 24 सितम्बर, 1952 को दुनिया को अलविदा कहने वाले ‘महात्मा रामरत्न थपलियाल’ मात्र 51 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। बचपन से ही अदभुत प्रतिभा के घनी इस महान व्यक्ति ने अभावों में कठिनता से शिक्षा पायी। कई साल घुम्मकडी में बिताये। मानसरोवर और सतोपंथ तक पहुंचे इस तपस्वी ने जीवन के सत्य का परीक्षण कर उसे अपने गांव चिलौली में लिपिबद्व किया। गांव में ही रोजगार के अभिनव प्रयोग भी किये। परन्तु नादान गांववालों ने उन्हें मदद करने और उनसे सीखने के बजाय उनका मजाक उडाया, परेशान किया, उन्हें मारा-पीटा और आखिर में उन्हें पागल तक घोषित कर दिया। उनकी रचनाओं को जाहिल लोगों ने नष्ट भी किया। परन्तु भारी गरीबी और अपमानजनक स्थिति में भी इस महान व्यक्ति ने धैर्य नहीं खोया। वे अपना कार्य करते रहे और गांववाले उन्हें सताते रहे। यहां तक कि जब सन् 1930 में ‘विश्वदर्शन’ पुस्तक प्रकाशित हुयी और देश-विदेश में चर्चा में आयी तब भी स्थानीय लोगों ने उन्हें यथोचित सम्मान और सहयोग नहीं दिया।
आज भी यह पुस्तक दार्शनिक जगत में चर्चा में रहती है। नतीजन इस पुस्तक के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। विडम्बना है कि हम अभी तक भी इस महान पूर्वज को यथोचित सम्मान नहीं दे पायें हैं। नयी पीढ़ी तो उन्हें जानती तक नहीं होगी।
परन्तु हमें यह पुख्ता तौर पर समझना ही होगा कि जो समाज अपने इतिहास और अपने पूर्वजों के योगदान को नहीं जानता वो समाज नये माहौल में मजबूती से खडा नहीं हो पाता है। वह समाज हीनता के बोध से ग्रसित होकर हर समय भ्रमित ही रहता है। क्योंकि उसके पास अपनी कोई गौरवशाली विरासत नहीं होती, जिससे कि उसमें आत्म-विश्वास का संचार हो।
अरुण कुकसाल
arunkuksal@gmail.com