मत ‘चूको’ त्रिवेंद्र …!
(वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से)
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो काम सरकार को करना चाहिए वह न्यायालय कर रहा है, और सरकार उसमें भी अड़ंगे लगा रही है। माना सरकार अक्सर राजनैतिक दबाव में कड़े फैसले नहीं ले पाती, लेकिन प्रदेश हित में न्यायालय के फैसलों पर अमल तो करा ही सकती है। अतिक्रमण पर हाईकोर्ट के फैसले के आड़े अब धीरे-धीरे सरकार खुद भी आने लगी है। देहरादून को अतिक्रमण मुक्त करने के व्यापक आदेश तो हैं ही, बीते दिनों अलग-अलग आदेशों में उच्च न्यायालय नैनीताल ने हरिद्वार और रुद्रपुर में भी अतिक्रमण हटाने के निर्देश दिये हैं। डर तो इसका है कि अब बात निकली है तो दूर तक जाएगी।
अभियान चलता रहा तो देर से ही सही वहां तक भी पहुंचेगा जहां अधिकांश नेताओं के निजी हित जुड़े हैं। सरकार न्यायालय में अर्जी लगाकर मौसम और आपादा के बहाने अतिक्रमण हटाओ अभियान टालने की फिराक में है, तो दूसरी ओर सरकार के विधायक अभियान के विरोध में खुलकर उतरने लगे हैं। इनमें वो विधायक भी शामिल हैं जो देहरादून के बड़े ‘गुनहगार’ हैं। जिन पर नदियों में अवैध बस्तियां बसाने और सरकारी जमीनों का बड़े पैमाने पर खुर्द-बुर्द करने का आरोप है। एक तरफ शहर के भविष्य से जुड़ा अतिक्रमण हटाओ अभियान है तो दूसरी ओर ‘बेशर्म’ सियासत। इस बीच सुप्रिम कोर्ट में अर्जी खारिज होने के बाद हर नजर इस वक्त मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पर हैं।हालांकि मुख्यमंत्री के ‘मौन’ ने अभी तक अतिक्रमण हटाओ अभियान को ताकत ही दी है लेकिन जिस तरह से सत्ता पक्ष के विधायक ही अभियान के खिलाफ बोलने लगे हैं उससे अतिक्रमण अभियान के दायरे को लेकर तमाम सवाल उठने लगे हैं।
राजधानी में चल रहे अभियान का पूरा दारोमदार मुख्यमंत्री पर है।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह को लेकर उनके सलाहकार, सिपहसालार और पार्टी के नेताओं की क्या राय है, कहा नहीं जा सकता। खुद मुख्यमंत्री तक क्या ‘फीड बैक’ पहुंचता है पता नहीं, लेकिन सामान्य ‘फीड बैक’ यह है कि त्रिवेंद्र अभी तक बहुत प्रभावी मुख्यमंत्री साबित नहीं हुए हैं। त्रिवेंद्र का मजबूत पक्ष यह है कि हाईकमान के वह भरोसेमंद हैं और बीते डेढ़ साल में व्यक्तिगत उनके ऊपर कोई आरोप नहीं है। माना जाता है कि उन पर किसी तरह का कोई दबाव काम नहीं करता। यही कारण भी है कि उनकी ही सरकार के अधिकांश मंत्री-विधायक उनसे खफा हैं। आरोप है कि उन्हें सहयोगियों से ज्यादा विवादित नौकरशाहों पर भरोसा है। त्रिवेंद्र का कमजोर पक्ष यह है कि उनकी प्राथमिकताएं अभी तक स्पष्ट नहीं हैं। शासन पर उनकी प्रभावी पकड़ भी नही है। सरकार के कामकाज को लेकर उनके दावों और हकीकत के बीच गहरा फासला है।
बहरहाल अतिक्रमण को लेकर उच्च न्यायालय के फैसले पर उनका रुख अभी तक शहर के पक्ष में रहा है। उनके सलाहकारों की इस मुद्दे पर जो भी सलाह हो लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि त्रिवेंद्र के लिए न्यायालय का यह आदेश एक वरदान की तरह है। सच यह है कि अपने पूरे कार्यकाल में त्रिवेंद्र अगर सिर्फ न्यायालय के सिर्फ एक इसी आदेश का अक्षरश: पालन करा पाए तो वह अभी तक के सबसे कामयाब मुख्यमंत्री कहलाएंगे। संयोग यह है कि न्यायालय का आदेश भी ऐसे वक्त में आया है, जब मुख्यमंत्री ने देहरादून की रिस्पना नदी को वापस ‘ऋषिपर्णा’ बनाने का संकल्प लिया है। हर कोई वाकिफ है कि मौजूदा परिस्थतियों में रिस्पना को पुनर्जीवित करना किसी हाल में संभव नहीं। रिस्पना को जीवित करने के लिये जरूरी है कि पहले शुरू से अंत उसके दोनो किनारों से अतिक्रमण हटाया जाए। सामान्य परिस्थतियों में सरकार के लिये यह किसी हाल में संभव नहीं है, लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश पर यह अब संभव है। सरकार अक्षरश: अमल कराने में कामयाब होती है तो फिर मुख्यमंत्री के इस संकल्प को सिद्ध होने में कोई शंका नहीं रह जाती। न्यायालय का यह आदेश ऐसे समय में भी आया है जब देहरादून को एक स्मार्ट सिटी बनाने के लिए ‘होमवर्क’ चल रहा है। और देहरादून की एक स्मार्ट सिटी के रूप में तब तक कल्पना नहीं की जा सकती जब तक कि उसकी सड़कों और चौराहों को विस्तार न मिले।
इसे त्रिवेंद्र सिंह का भाग्य ही कहा जा सकता है कि देहरादून की कई समस्याओं से निपटने की चाबी उच्च न्यायालय के आदेश के रूप में उनके हाथ लगी है। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि मुख्यमंत्री निष्पक्ष रूप से इसके लिए प्रतिबद्ध न हों। अगर नदियों के किनारे का अतिक्रमण साफ होता है, बस्तियां हटती हैं तो निसंदेह मुख्यमंत्री को नदी, नाले, खालों में कब्जा किये होटल, स्कूल और कालेजों की बड़ी बिल्डिंगों को भी हटाना होगा।
यह सही है कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद बहुत से लोगों की नींद उड़ी हुई है। इनमें उन लोगों की बड़ी संख्या है जिनका अतिक्रमण या कब्जा राह चलते नहीं दिखाई देता। शहर में कई बिल्डिगें ऐसी हैं जो नाले-खालों को अंदर ही अंदर पाट चुकी हैं। नगर निगम की सैकड़ों हेक्टेअर भूमि पर अवैध निर्माण और कब्जा है। यह कब्जा चाहरदीवारियों के पीछे है, जो सड़क से नजर नहीं आता। इनमें सरकारी अफसरों से लेकर बड़े कारोबारियों के बंगले, होटल, यूनिवर्सिटी, अस्पताल, स्कूल और कालेज तक शामिल हैं। मतलब साफ है कि पक्षपात से बचना होगा। कोई शक नहीं कि मुख्यमंत्री को अपने ही लोगों की नाराजगी का भी सामना करना पड़े। देहरादून में अतिक्रमण और कब्जों के लिए दोषी अधिकारी कर्मचारियों को सजा देने की बात उच्च न्यायालय ने तो कही है लेकिन मुख्यमंत्री को उन जनप्रतिनिधियों और सफेदपोशों से सख्ती से पेश आना होगा, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत हितों के लिए लोगों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है। यह सफेदपोश लोगों के बेघर होने, बेगार होने को मुद्दा बनाएंगे, उनके प्रति संवेदनाएं जताते हुए सरकार पर अभियान रोकने का दबाव भी बनाएंगे। अभियान को रोकने की हर संभव कोशिश भी करेंगे लेकिन मुख्यमंत्री को मजबूती से टिके रहना होगा। यह सही है कि किसी का आशियां उजड़ने की तकलीफ कम नहीं होती, वर्षों से जमे कारोबार-रोजगार को नए सिरे से शुरू करना किसी के लिए आसान नहीं होता। लेकिन यह भी सच है कि सिर्फ ‘वोट’ और ‘नोट’ की सियासत करने वाले सफेदपोश यह दर्द नहीं समझते। अगर उन्होंने यह दर्द समझा होता तो अवैध बस्तियां नहीं बसती, अवैध कब्जे नहीं होते। इन बस्तियों और अवैध कब्जों से तो सफेदपोशों का रोजगार चलता है। सफेदपोशों को आम जनता का दर्द होता तो उन्हें बेहतर जिंदगी के लिए प्रेरित करते, उनके स्थायी रोजगार के प्रयास करते। जनता की गाढ़ी कमाई और टैक्स के पैसे को बस्तियों में यूं बर्बाद नहीं करते। सड़कों से पहले नालियां बनवाते, पानी और सीवर की लाइनें खुदवाते।
बहरहाल न्यायालय अपने फैसले पर कायम है, अब इतिहास रचने की बारी सरकार की है। वक्त भले ही ज्यादा लगे लेकिन सरकार चाहे तो सूरत बदल सकती है। सरकार करना चाहे तो बहुत कुछ कर सकती है। सरकार ऐसा भी कर सकती है कि अतिक्रमण और अवैध कब्जे भी हट जाएं और कोई बवाल भी न हो। सरकार ऐसे इंतजाम भी कर सकती है कि कोई बेघर भी न होने पाए और किसी का कारोबार-रोजगार भी खत्म न हो जाए। सरकार चाहे तो ऐसी व्यवस्था कर सकती है कि भविष्य में कोई अतिक्रमण या अवैध कब्जे के बारे में सोच भी न पाए। बात सिर्फ इतनी है कि सरकार को इसके लिए प्रतिबद्ध होना होगा। त्रिवेंद्र जी, सनद रहे कि देहरादून को बचाने का यह आखिरी मौका है, अब भी अगर दून की सांसे नहीं लौटी तो फिर यह कभी संभव नहीं। इसलिये इस बार ‘चूकना’ मत, इतिहास बड़े गौर से उम्मीद लगाए आपको देख रहा है। तय आपने ही करना है कि इतिहास आपको ‘नायक’ के रूप में दर्ज करे या ‘खलनायक’ के रूप में।