बरखा….!अतीत के कीमती साल बयाँ करता नेगी जी का गीत! काश…आज भी बारिश का ऐसा ही उत्सव मनाते लोग!
(मनोज इष्टवाल)
आज जहाँ श्रावण मास के शुरू होते ही बरसात के कहर से जहाँ सम्पूर्ण उत्तराखंड का पहाड़ी समाज सहम व डर जाता है वहीँ इसी बर्षा ऋतु के आगमन का आज से 20-25 बर्ष पूर्व कैसा उत्सव मनाया जाता था यह देखने के लिए कुछ ऐसी ही आँखें आज भी होनी चाहिए जैसी लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीत के बोलों में उस कल्पना को साकार करता यह वीडिओ बनाया गया है। लगभग 40 बर्ष पूर्व पहले आकाशवाणी से और फिर लगभग 28 बर्ष पूर्व कैसेट के माध्यम में उत्तराखंडी समाज को अपने सुगम संगीत की मिठास में बर्षा ऋतु का पूरा वर्णन सुनाता समझाता यह गीत वीडियो देखने से ही लगता है कि तब बर्षा ऋतु के आगमन पर क्या खुशियाँ और क्या चिंताएं लोक समाज के बीच रहती थी। जहाँ बच्चों के लिए यह किसी लोक त्यौहार से कम नहीं होता था वहीँ जवां दिलों में नयी नवेली दुल्हन या यौवन हृदयों में प्रेम की हूक का एक स्वप्न झंकृत करना इस ऋतु का मुख्य उद्देश्य भी लगता था।
सतरंगी धनुष जब आकाश से गदेरे में गिरता है तो ऐसे ही सतरंगी ख़्वाबों में कृषक अपने खेतों की मेंडे संजोने में माँ बहनें कोदा-झंगोरा, दाल की निराई गुडाई में तो बुजुर्ग टपकते मकानों की छत्तों में बेड़े डालने व दादी माँ टल्ले लगे रजाई गद्द्दों को धूप दिखाने में ही लगे रहते थे! वहीँ इस ऋतु में बादलों के ख़्वाबों के साथ उड़ते बचपन के पंख परवाज जाने कहाँ कहाँ धुमाचौकड़ी मचाते थे। यह गीत ठेठ हमें उस बचपन को ज़िंदा करवा देता है जिसमें हम जब गाय-बैल, बकरी चुगाने पर्वत शिखरों में जाते थे तब छाते भी गिनती के हुआ करते थे। यहाँ टाट के बोरों को ओड़कर बारिश से बचना, मालू के पत्तों का छाता बनाना, बरसात में जन्में गदेरों में छत्तपत्त करके नहाना, ऊँची धारों में सुरीली बांसुरी बजाना, गाय-बैलों के साथ चलने वाली बारीक मक्खियों को भगाने के लिए या अपने पास आने के लिए ओप्ले जलाना, चुपड़ी मिटटी से अजब गजब श्रृंगार करना, बिजली कड़के तो पुट-पुट, घनाफोड़ व खड़ीक च्यूं, सुल च्यूं ढूढना और लगातार बारिश हो तो सिंगन(मशरूम) की घाटियों में जाकर जड़या, तिल्या, कुळया, व बंज्या सिंगन ढूंढकर लाना। लगातार बारिश होने से भट्ट भूझकर खाना, या फिर कई अन्न (जिनमें भट्ट, मकई, मोटी दाल इत्यादि) मिलाकर एक अलग सा स्वादिस्ट भोजन बनाना! निर्पणी (बिना पानी के) तस्मै (खीर) बनाना! गाँव की सभी बेटियों बहनों का एक जगह इकठ्ठा होकर खिचड़ी/मिट्टू भात/लगड़े इत्यादि बनाना। सब कुछ मानों एक साथ इस गीत ने ताजा कर दिया हो।
लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का यह गीत इतने बर्ष पुराना है फिर भी यह गीत आज भी हम सबके दिलों में राज करता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि इस गीत को फिल्माने वाले ज्यादात्तर वो कलाकार हैं जिन्होंने बमुश्किल ऐसा समय देखा हो, क्योंकि इसमें नवोदित निर्देशक कविलाश हो या फिर कैमरा मैन गोबिंद नेगी व चन्द्रशेखर सभी की उमर अभी 32-35 के आस पास है और ऐसे में उन्होंने इतना ही पुराना समय ताजा कर दिया यह काबिलेतारीफ है। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की एक बिशेषता रही है कि वे गाने के बाद कोशिश करते हैं कि उनकी कल्पनाओं का जब विजुलाइजेशन हो तो ठेठ वे सब बातें सामने आये जो उन्हें चाहिए होती हैं, और यह इस टीम ने करने की कोशिश की है। श्रीमती उषा नेगी का ड्रेस डिजाइनिंग वास्तव में कमाल का होता है। यहाँ लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का पूरा परिवार लोक संस्कृति धर्मिता का इतना बड़ा चितेरा है कि सबने अपना सर्वस्व देने की इसमें कोशिश की है। जहाँ उनकी अर्धांग्नी उषा नेगी कला पक्ष संभालती है वहीँ बेटा कविलास अब डायरेक्शन के क्षेत्र में मजबूती से उभर रहा है। बहु भला कहाँ पीछे रहने वाली थी इसलिए उनकी बहु अंजलि नेगी ने अपना पसंदीदा सफर अभिनय के माध्यम से शुरू कर चौथे खम्बे के रूप में मजबूत बुनियाद देने की कोशिश की है।
पहाड़ी दगडया नामक यह टीम सचमुच धमाल मचा रही है। यह टीम मौल्यार ग्रुप के रूप में सर्वप्रथम तब चर्चाओं में आई जब ये लोग पहाड़ी होली को लेकर देहरादून आये और आते ही छा गए। यह टीम पूर्ण रूप से लोक संस्कृति व लोकसमाज को जीवित रखने के लिए पुरजोर मेहनत करती भी नजर आती है! यही कारण है कि ये सब अपनी छाप छोड़ने में कामयाब भी रहे हैं।
“सरररा ऐग्ये भैS बरखा झुकी ऐग्ये”…नामक इस गीत के बोल चाहे आज से 40 बर्ष पहले क्यों न लिखे गए हों लेकिन यह गीत अब उन युवओं में प्राण फूंकेगा जिन्हें बरसात का आनन्द लेने में बेहद डर सा लगता है। उन्हें पता भी चलना चाहिए कि वास्तव में बरसा ऋतु हमारी लोक धर्मिता का कैसा त्यौहार था। मुझे उत्तरकाशी में एसडीएम रहे शैलेन्द्र सिंह नेगी के वह बोल याद आ गए कि बचपन में हम बारिश को उत्सव के रूप में देखते थे और अब इसे नींद हराम करने के रूप में। क्योंकि जब मैं उत्तरकाशी में पोस्टेड था तब बारिश के दिनों सोना हराम था लगता था कि जाने कब भूचाल आये, कब बादल फट जाय, कब नदियाँ उफान पर आयें और कब आपदा तंत्र लोगों को मुसीबतों से बचाने आये! काश….अब भी हमारे पहाड़ वैसे ही होते जैसे हमारे बचपन में थे।
बहरहाल बरखा गीत के अंदर मुझे जो शॉट्स कमाल के लगे उनमें “सरररा घसेर्युं की जिकुड़ी रुझेग्ये” में जब एक महिला भीगी हुई धोती को झटकती है। यह शॉट कमाल का फील पैदा करती है, व जहाँ अभिनेत्री इंदु भट्ट एक पत्थर की आड़ में छुपकर बारिश से बचने का अभिनय करती है। दूसरा- “बौ की नजर…सरररा बौ की जिकुड़ी कन झूरै ग्ये” में जब अंजलि नेगी के चेहरे पर काजल फ़ैल जाता है व उसके एक्प्रेशन कमाल के थे। तीसरा- “पणधरियुं की लर्क-तर्क बौडी भित्तर-भित्तर सर्क!” में अभिनेत्री मंजू बहुगुणा ने भी कमाल का शॉट दिया वहीं सरररा ब्वाडा कु कन फजीतु कैग्ये,धुरपलु भी चूण लैज्ञे …सरररा बुढया कु भारी जडू ह्वेज्ञे में अक्षय नाट्य संस्थान गोपेश्वर के हरीश भारती ने कमाल का अभिनय किया हो। वह शॉट तो अल्टीमेट है जिसमें वह पानी टपकने के लिए डिब्बा उठाते हैं।वहीं अभिनेता मदन डुकलान अभिनीत “सर्ररा ब्वाडा कु छतरू डेरे रैज्ञे।”कमाल का शॉट। वहीँ अभिनेत्री संयोगिता ध्यानी व मंजू बहुगुणा जितनी देर भी रही पूरे गीत में छा गयी। अभिनेता शैलेन्द्र पटवाल का हल छोड़कर भागते वक्त गिरना कमाल का शॉट है। बाल कलाकार भी अपने अभिनय के साथ इन्साफ करते नजर आये ।
आपको बता दें कि इस गीत के निर्माता के रूप में सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता व सालिटिअर संजय कुमार शर्मा व डीपीएमआई के चेयरमैन विनोद बचेती ने अपनी भूमिका निभाई है जबकि “पहाड़ी दगडया” ग्रुप ने इसे मार्केट में उतारा है। व गीत व स्वर- नरेंद्र सिंह नेगी, संगीत -ज्वाला प्रसाद, अभिनय- मंजू बहुगुणा, मदन दुकलान, संयोगिता ध्यानी, हरीश भारती, इंदु भट्ट, शैलेन्द्र पटवाल, अंजली नेगी यशवंत सिरानी, मेकअप- संजय रावत, ड्रेस डिज़ाइनर- उषा नेगी, सिनेमाटोग्राफी- गोबिंद नेगी/चन्द्रशेखर चौहान, कैमरा सहायक- रवि यादव, एडिटर- गोबिंद नेगी! प्रोडक्शन मेनेजर- अब्बू रावत प्रोडक्शन टीम – सैंडी गुसाई/अंकित सेमवाल, आर्ट डायरेक्टर – कैलाश भट्ट, असिस्टेंट डायरेक्टर- सोहन चौहान, डायरेक्टर – कविलास नेगी इत्यादि प्रमुख थे!