प्रकृति के करीब है पहाड़ का लोक पर्व “हरेला”!
(चन्द्रशेखर तिवारी जी की कलम से)
“जी रया जाग रया,
य त्यार हर बार भेटने रया।
दुब जस पनपी जाया, धरति जस चकव,
अगास जस उच्च है जाया।
स्यू जस तराण स्याव जस बुद्धि हो।
हिमाव में ह्युं रूंण तलक,
गंग-जमुन में पाणी रूंण तलक ज्यूँन रैया।”
यानी तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, हरेले का यह दिन-बार आता-जाता रहे, वंश-परिवार दूब की तरह पनपता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले आकाश की तरह उच्चता प्राप्त हो, सिंह जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले, हिमालय में हिम रहने और गंगा जमुना में पानी बहने तक इस संसार में तुम बने रहो़……। पहाड़ के लोक पर्व हरेला पर जब सयानी और अन्य महिलाएं घर-परिवार के सदस्यों को हरेला शिरोधार्य कराती हैं तो उनके मुख से आशीष की यह पंक्तियां बरबस उमड़ पड़ती हैं। घर परिवार के सदस्य से लेकर गांव समाज के खुसहाली के निमित्त की गयी इस मंगल कामना में हमें जहां एक ओर ‘जीवेद् शरद शतंम्‘की अवधारणा प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर इस कामना में प्रकृति व मानव के सह अस्तित्व और प्रकृति संरक्षण की दिशा में उन्मुख एक समृद्ध विचारधारा भी साफ तौर पर परिलक्षित होती दिखायी देती है। आखिर प्रकृति के इसी ऋतु परिवर्तन एवं पेड़-पौंधों, जीव-जन्तु,धरती,आकाश से मिलकर बने पर्यावरण से ही तो सम्पूर्ण जगत में व्याप्त मानव व अन्य प्राणियों का जीवन चक्र निर्भर है।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर कुमाऊं अंचल में हरेला मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। उमंग और उत्साह के साथ मनाये जाने वाले इस पर्व को ऋतु उत्सवों में सर्वाच्च स्थान प्राप्त है। हरेला पर्व सौरमास श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है। परम्परानुसार पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों या मिट्टी बर्तनों में हरेला बोया जाता है। जिसमें उपलब्धतानुसार पांच,सात अथवा नौ प्रकार के धान्य यथा-धान, मक्का, तिल, उरद, गहत, भट्ट,जौं व सरसों के बीजों को बोया जाता है। देवस्थान में इन टोकरियां को रखने के उपरान्त रोजाना इन्हें जल के छींटां से सींचा जाता है। दो-तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात-आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं। हरेला पर्व की पूर्व सन्ध्या पर इन तृणों की लकड़ी की पतली टहनी से गुड़ाई करने के बाद इनका विधिवत पूजन किया जाता है। कुछ स्थानों में इस दिन चिकनी मिट्टी से शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के डिकारे( मूर्त्तियां)बनाने का भी रिवाज है। इन अलंकृत डिकारों को भी हरेले की टोकरियों के साथ रखकर पूजा जाता है। हरेला पर्व के दिन देवस्थान में विधि-विधान के साथ टोकरियों में उगे हरेले के तृणों को काटा जाता है। इसके बाद घर-परिवार की बड़ी महिलाएं अपने दोनों हाथों से हरेले के तृणों को दोनों पांव,घुटनों व कंधों से स्पर्श कराते हुए और आर्शीवाद युक्त शब्दों के साथ बारी-बारी से घर के सदस्यों के सिर पर रखती हैं। इस दिन लोग विविध पहाड़ी पकवान बनाकर एक दूसरे के यहां बांटा जाता है। गांव में इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ो का रोपण करने की परम्परा है। लोक-मान्यता है कि इस दिन पेड़ की टहनी मात्र के रोपण से ही उसमें जीवन पनप जाता है।
यदि हम गहराई से देखें तो हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की भूमिका में नजर आता है। मानव के तन-मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती आयी है । यह पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है। हरेला बोने और नौ-दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है। इससे यह सहज पूर्वानुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी। हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की जो परम्परा है वह बारहनाजा अथवा मिश्रित खेती की पद्धति के महत्व को भी दर्शाता है। परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाये जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है क्योंकि यहाँ के समाज में यह मान्यता रही है कि परिवार चाहे संयुक्त रूप से कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है। कुमाऊं में तो कहीं-कहीं पूरे गांव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गांव के मंदिर में भी बोया जाता है। कुछ सालों पहले हरेले पर कई स्थानों में मेले भी लगते थे जहां खूब रौनक रहती थी परन्तु अब यह मेले नाम मात्र को रह गए हैं। इधर वर्तमान में छखाता पट्टी के भीमताल व काली कुमाऊं के बालेश्वर व सुई-बिसुंग के में धूम-धाम से मेले आयोजित होते हैं और इन्होंने सांस्कृतिक मेले का रूप ले लियस है।
कुल मिलाकर देखा जाय तो हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक बहुत बड़ी व दूरदर्शी अवधारणा निहित दिखाई देती है। समूचे वैश्विक स्तर पर आज पूंजीवादी और बाजारवादी संस्कृति जिस तरह प्रकृति और समाज से दूर होती जा रही है यह बहुत चिन्ताजनक बात है। ऐसे में निश्चित तौर पर लोक के बीच मनाया जाने वाला यह हरेला पर्व हमें प्रकृति और संस्कृति के करीब आने का सार्थक संदेश देता है। आज से चार दशक पूर्व पर्वतीय चेतना के सोद्देश्य पाक्षिक पत्र ‘नैनीताल समाचार’ परिवार ने अपने सुधी पाठकों व प्रवासी पाठकों को हरेला पर्व पर ‘हरेले के तिनडे’ भेजने की जो नायाब परम्परा स्थापित की और जिसे आज तक बनाये रखा है वह निश्चित ही पहाड़ की संस्कृति, समाज और परम्परा से निरन्तर जुड़े रहने की सजग प्रेरणा देता है। समाज और प्रकृति में हरेले की महत्ता को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार तथा ‘धाद’ सहित कई संगठनों ने भी पिछले दो-तीन सालों से सामाजिक स्तर पर हरेला मनाने की कवायद शुरू कर दी है जिसके तहत राज्य में पर्यावरण और सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये जन चेतना और जागरूता पैदा करने के सार्थक प्रयास हो रहे हैं.. निश्चित तौर पर समाज में इस तरह के प्रयास प्रकृति और संस्कृति के प्रति संवेदनशील होने और संरक्षण की दिशा में सुखद संकेत माने जा सकते हैं।
( इस पोस्ट में जो ‘डिकारे’ का रेखाचित्र दिया गया है उसे साहित्यकार और पहाड़ी संस्कृति की जानकर श्रीमती भारती पांडे जी ने बनाया है। रेखाचित्र उपलब्ध कराने के लिए उनका हार्दिक आभार)
मुखपृष्ठ फोटो साभार- उत्तरायणी