पैत्रिक धरती पर पाँव रखते ही लगा जैसे पितरों ने गोदी में उठा लिया हो..!
(मनोज इष्टवाल)
ट्रेवलाग 5 फरवरी 2016
माउंट आबू क्षेत्र राजस्थान से धारा नगरी के परमार वंशी राजपूतों के साथ बद्री-केदार यात्रा कर चौन्दकोट परगने के चौन्दकोट गढ़ी के सानिध्य में अमेली डांडा और वनदेवी दीवा की गोद में आकर सम्भवतः सन 1614 ई. बसे पंडित जयमल व शकुनी ईष्टवाल ने अपनी बसागत की शुरुआत नौखंडी नामक गॉव से की जहाँ उन्होंने नौखंडी नाव (नवल/कुआँ) बनाकर अपने को व्यवस्थित किया और जीतू बगड्वाल के वंशजों के कुल पुरोहित बने।
चौन्दकोट गढ़ी की संरचनाकार इन भाइयों को बगड्वालों का श्राप झेलना पड़ा और गॉव की बसागत नौखंडी से कालांतर में ही इसोटी गॉव हुई। उसके बाद शाखाएं फूटी सौकार, पदान, थोकदार, जगरी थोक में बंटते गॉव से जो धनिक रहे पलायन करते हुए अन्य गॉव बसते रहे। इसोटी से केष्ट जाकर हम केष्टवाल कहलाये। शायद पलायन समाज का एक दुर्गुण या गुण रहा है। दुर्गुण इसलिए कि इससे गॉव की आबादी घटी और परिवार बंटे। गुण इसलिए कि जो बाहर निकला उसने शिक्षा ली और ऊँचे पदों पर आसीन हुए।
खैर हम भी अपने पूर्वजों के अनुशरण करते हुए नौखंडी से इसोटी, इसोटी से कुलाणी, कुलाणी से डोबल्या डोबल्या से धारकोट, धारकोट से नैल, देहरादून, गाजियाबाद, दिल्ली, फरीदाबाद इत्यादि शहरों की शरण में जा बसे। दूसरी शाखा बैंदुल, गवाणी, होते हुए देश विदेश के कई महानगरो में जा बसे।
आज से लगभग बीस पच्चीस बर्ष पूर्व जब मैंने यह जिद ठान ली कि अपने वंशजों की खोज खबर लेकर वंशावली लिखूं तब इसोटी तक सड़क नहीं थी। तब किर्खु से नैली, पीपली होता हुआ यहाँ पैदल पहुंचा था। तब गॉव में एक चक्की हुआ करती थी और तुनाखाल जहाँ आज बाजार बसा है वहां पीपल पेड़ के पास हमारे वंशजों के मरघट..!
आज भी वे कई बुजुर्ग याद आते हैं जो आज मौजूद नहीं हैं लेकिन मुझे अपना वंशज समझकर उनके दिलोदिमाग में जो ख़ुशी हुई थी वह उनकी आँखों में चेहरे पर चमकती दिखी।
खैर काल की गर्त में कई चीजें समाकर यादों में शामिल हो जाती हैं। नौखंडी मैं अपने डीएसपी चाचाजी स्व. महेश चंद इष्टवाल के मंझले पुत्र कैलाश इष्टवाल के साथ दो तीन बार गया हूँ इसलिए वहां लगभग सभी भाई बहन मुझे पहचानते हैं, लेकिन बर्षों बाद जब इस बार अपने भांजे विवेक की शादी के बाद गया और वहां रुका तो पाया जैसे वह धरा वह खेत वह खलिहान मुझे देख प्रफुल्लित हो गए हों आँगन घर व पनघट नाच उठे हों। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि मनोज इष्टवाल के नाम को वहां हर तोक की ठेठ ग्रामीण महिलाएं मेरी काकी, बोडी दादी फूफू सब जानती हैं। सबका स्नेहिल हाथ सर माथे पर था। मैंने भी हर तोक में बैठकर अपनी उपस्थिति का आनंद दिला। पनघट में गया जिसकी दशा अब बिगड़ चुकी है क्योंकि घर-घर पानी आ गया है। बिष्णु जल धारे के इस पानी से अपने को तृप्त किया और वहां कपडे धो रही गॉव की भूली/बेटी के साथ फोटो भी खिंचवाया। वहीँ इसोटी के हर तोक के माल्टे चखे, हेमू भाई ने भी तोहफे में माल्टा दिया।
अमेली की उतुंग शिखर पर नजर पड़ी तो याद आया वहां कविन्द्र इष्टवालजी द्वारा ग्रामीण सहयोग से दीवा वन देवी का बिहंगम मंदिर निर्माण करवाया हुआ है वहीँ भाई उमेश इष्टवाल व परिजनों द्वारा काली मंदिर तथा अन्य द्वारा माँ का मंदिर बनवाया हुआ है उसके दर्शन किये!
सरहद ऐसे लग रही थी मानों मैंने बचपन में इन खेतों पर हल चलाया हो। घास लकड़ी काटी हो। माँ बहनों भाभियों को साथ ठठा मजाक किया हो, और मेरे पूर्वजों ने मुझे गोदी में उठाकर पूरा क्षेत्र घुमाया हो। सचमुच आँखें ख़ुशी से सजल हो गयी। जब विदा हुआ तो लगा घर छोड़कर जा रहा हूँ। कशिश यह कि गांव अभी कितने दिन और आबाद रहेंगे। मैं धन्य हुआ कि इसोटी की जनसंख्या में आबादी अभी भी 60 से 70 प्रतिशत है। कवींद्र व उमेश जैसे धनाढ्य यहां सिर्फ आये ही नहीं बल्कि कवींद्र ने तो अपना सुंदर मकान भी बना लिया जबकि उमेश भाई ने भी अपनी टूटी छत्त रेपयर करवा ली है। यहां से विदा लिए वक्त मन भारी था ऐसी पैत्रिक धरा को मेरा नमन!