Thursday, August 21, 2025
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पिता तो पिता है, हमसे कब वो जुदा है’

(अरुण कुकसाल की कलम से)

मानवीय रिश्तों में सबसे जटिल रिश्ता पिता के साथ माना गया है। भारतीय परिवेश में पारिवारिक रिश्तों की मिठास में ‘पिता’ की तुलना में ‘मां’ फायदे में रहती है। परिवार में ‘पिता’ अक्सर अकेला खड़ा नज़र आता है। तेजी से बदलती जीवनशैली में परिवारों के भीतर पिता का पारंपरिक रुतवा लुढ़कता हुआ खतरे के निशान के आस-पास अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रहा है। पर यह भी उतना ही सच है कि पिता के पैरों की नीचे की जमीन कितनी ही खुरदरी लगे परिवार में जीने का जज्बां और हौसला वहीं पनाह लेता है।

पिता-पुत्र/पुत्र-पिता संबधों और उनकी आपसी कैमेस्ट्री की इवान सेर्गेयेविच तुर्गेनेव ने अपनी किताब ‘पिता और पुत्र’ में 150 साल पहले जो व्याख्या की थी वह आज भी प्रासंगिक है।

इवान तुर्गेनेव (सन् 1818-1883) 19वीं शताब्दी के विश्व प्रसिद्व अग्रणी लेखकों में शामिल रहे हैं। टाॅलस्टाय, चिख़ोव, दोस्तोयेव्स्की, गेटे, डिकेन्स आदि के समकक्ष तुर्गेनेव के लेखन को विश्व प्रतिष्ठा मिली है। ‘पिता और पुत्र’ तुर्गेनेव का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। सर्वप्रथम सन् 1862 में ‘मास्को पत्रिका’ में यह धारावाहिक के रूप में छपा और इसी वर्ष पुस्तक स्वरूप भी प्रकाशित हुआ था। विश्वस्तर पर इसकी जबरदस्त लोकप्रियता का यह आलम था कि सन् 1862 का साल भी बीत नहीं पाया कि जर्मनी, अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषा में भी यह उपन्यास प्रकाशित हो गया था। तुर्गेनेव रूस के सर्वाधिक धनी और कुलीन परिवार से संबध रखते थे। लेकिन सामन्ती व्यस्था के प्रबल बिरोधी थे। अतः घर-परिवार छोड़ कर स्वतंत्र लेखक के माध्यम से सामाजिक समानता के लिए सर्मपित हो गये थे।

क्रूर शासक निकोलाई के सन् 1855 में हुई मृत्यु के बाद रूस में सामाजिक प्रगति की पृष्ठभूमि ‘पिता और पुत्र’ उपन्यास का कथानक है। डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा येवगेनी बज़ारोव उपन्यास का नायक है। बज़ारोव परम्पराओं का बोझ ढ़ो रहे ‘पिताओं’ के विरोध में नयी रूसी पीढ़ी ‘निहिलिस्ट’ (क्रातिंकारी) का प्रतिनिधि है। बज़ारोव के समानान्तर पावेल किरसानोव है, जो रुढ़िवादिता को अपनाना शान समझता है। बाज़ारोव अपनी साफगोई और तर्कशीलता से अन्य पात्रों पर हावी है, परन्तु इन्हीं कारणों से वह अन्य पात्रों की कठोर आलोचनाओं का शिकार है।

‘पिता और पुत्र’ को पढ़ने के बाद प्रसिद्व लेखक अंतोन चेख़ोव ने लिखा कि ‘चीख़ उठने को मन करता है ! क्योंकि पाठक बज़ारोव के सम्मुख अपने को बहुत दुर्लभ महसूस करता है’। पिछली शताब्दी से भी पहले तुर्गेनेव का यह उपन्यास आज भी उसी तरह सजीव और रोचक है। लाखों पाठकों और कई पीढ़ियों ने इस उपन्यास के जरिये ‘पिता और पुत्र’ के संबधों का ताप महसूस किया होगा। जो आज भी कमोवेश उसी रूप में बरकरार है।

‘पिता और पुत्र’ के आपसी संबधों का भी अजीब भाग्य है। सामान्यतया वे साथ रहना चाहते हैं पर साथ रहते हुए भी वैचारिक रूप में आपस में साम्य नहीं रख पाते हैं। दोनों में से एक को तो एकाकी रहना ही पड़ता है परिवारिक और सामाजिक रिश्तों को निभाने में। पिता-पुत्र के संबधों की यही श्वाश्त नियति है। इस उपन्यास में यह एकाकीपन पुत्र बज़ारोव के हिस्से आयी है। और इसका कारण यही है कि बज़ारोव की वैचारिक दृष्टि और व्यवहार तत्कालीन रूसी समाज से कहीं आगे की थी। तुर्गेनेव ने माना कि ‘अभी बज़ारोव का जमाना नहीं आया है’। मुझे लगता है कि पिता के सम्मुख पुत्र बज़ारोव का जमाना आज 150 साल बाद भी नहीं आया है’।

अब अपनी और अपने पिता की बात हो जाए। बचपन की धुंधली नहीं पूरी याद है। बौंसाल से मेरे चामी गांव पैदल आना-जाना होता था। पिताजी जब कभी भी नौकरी की छुट्टियों में घर आते तो देर शाम या रात होने के बाद ही पहुंचते थे। वो भी तल्ली चामी के रास्ते नहीं आते थे। जैथलगांव से धार ही धार लम्बे फेर वाले रास्ते से ही उनका घर आना-जाना होता था। कारण, तल्ली चामी ससुराल जो था, उनका। ससुराल से आने-जाने में संकोच जो हुआ।

पिताजी के घर आते ही दादाजी अपने नरूल वाले छोटे हुक्के में फिर से ताजा पानी भरते और चिलम सुलगाने के लिए चार-पांच सौड़ मार कर कहते ‘जा अपने बाप को दे आ’ (अक्सर वे ये बात हिंदी में ही बोलते)। मैं नरूल हुक्के को अपने कमरे में पैदल रास्ते की थकान से अधलेटे पिता को दे आता। थोड़ी देर बाद पिताजी की हुक्का दादा जी को देने की आवाज सुनाई देती। मैं हुक्का वापस दाजी के पास ले आता। फिर कुछ ही देर में दाजी कहते ‘जा दे आ अपने बाप को’। तंग आकर एक बार मैं दादाजी से झुंझलाया कि तुम दोनों एक साथ बैठकर क्यों नहीं पीते हो हुक्का, पर जबाव हो तो वो देते। पिता से ज्यादा परिचय था नहीं इसलिए उनसे सीधे कहने सवाल ही नहीं था। दाजी ही हम बच्चों के सर्वेसर्वा थे।

पिताजी स्व: कन्हैया प्रसाद कुकसाल जी का जन्म 20 अक्टूबर, 1922 को भवाली (नैनीताल) के पास स्यूंसारी गांव में हुआ था। दादा जी तब बतौर कानूनगो की नौकरी करते हुए मय बाल-बच्चों के वर्षों से वहां रहते थे। दादा जी वर्ष 1933 में नौकरी से रिटायर हुए। अच्छी सरकारी सेवा के इनाम में तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर ने उन्हें भवाली के पास श्यामखेत में बगीचा बक्शीश में दिया था। दादा जी ने उस बगीचे को किन्हीं स्थानीय स्वाधीनता आन्दोलनकारी को दान में दिया और दादी के साथ मजे से अपने गढ़वाल के गांव चामी लौट आए।

ताऊजी एवं पिताजी नैनीताल में ही नौकरी कर रहे बड़े ताऊजी के साथ रह कर पढ़ने लगे। तब चामी गांव पहुंचने में कोटद्वार-दुगडडा से 45 किमी़ की विकट चढाई-उतराई का पैदल रास्ता चलना होता था। कई गाड़-गधेरे विशेषकर नयार नदी पार करना रिस्की तो था ही।

तकरीबन 35 साल बाद गांव आकर दाजी खेती-किसानी और समाज सेवा में रम गये। सीरौं ग्राम सभा से अलग होकर चामी ग्रामसभा के वे पहले प्रधान बने। वर्ष 1933 में जब वे गांव आए थे तो 35 साला नौकरी की कुल बचत 10 हजार रुपए उनके पास थी। उस जमाने में पेंशन नहीं हुआ करती थी। यह रकम अक्षय पात्र की तरह (वर्ष 1970 में दादा जी के स्वर्गवास होने तक) गांव में 37 साल तक रहते हुए तमाम पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों को निभाते हुए ताउम्र उनका साथ देती रही।

दादा जी बचपन में मुझसे कहा करते थे कि उनके बक्से में बहुत पैसा है। और जब यह भर जायेगा तो वो मुझे दे देंगे। मैं भी इसी लालच में कि यह बक्सा जल्दी भरे, जजमानों और मेहमानों से मिली अपार दौलत याने चव्वनी दक्षिणा को उसमें डाल देता था। ये सोचकर कर बाद में पूरा बक्सा मुझे तो ही मिलना है।

पिताजी की पढ़ाई-लिखाई नैनीताल, अल्मोड़ा और इलाहाबाद में हुई। गढ़वाल-कुमाऊं के विभिन्न नगरों में नौकरी के उपरांत वर्ष 1980 में वे रिटायरमेंट पर वापस गांव आ गये। बचपन से शहरी जीवन के अभ्यस्त तब वे ग्रामीण जीवन से बिल्कुल अनभिज्ञ थे। लेकिन गांव के तौर-तरीकों को अपनाने में उन्हें देर नहीं लगी। गांव में बागवानी और साग-सब्जी के कार्यों से वे जुड़ गये। अध्ययनशील पुस्तक प्रेमी थे। परन्तु केवल सामाजिक उपन्यास-कहानी पढ़ने की आदत थी। बंकिमचंद्र, टालस्टाय, गोर्की, प्रेमचंद, शरतचंद्र से लेकर गुलशन नंदा, ओम प्रकाश शर्मा, रंजीत और रानू आदि तक उनकी पढ़नीय किताबें थीं।

‘धार्मिक’ और ‘विकास कैसा हो’ की चर्चा और पुस्तकों से पूरी तरह परहेज रखते हुए उनसे हमेशा अपने को दूर रखा। मतलब, ‘बातों के नहीं कर्म के धनी’ थे। गांव में नौकरी से अवकाश लेने के उपरांत पूरे 30 साल गांव में बागवानी और पुस्तक अध्ययन में अपने को व्यस्त रखते हुए उन्होंने अपना परम आनंदित जीवन जिया। चामी गांव के आर्थिक आधार को जीवन्त बनाये रखने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।

आज मैं गांव में रह कर कुछ योगदान दे पा रहा हूं तो उसमें उन्हीं की प्रेरणा और मार्गदर्शन है।उन्हें नमन करते हुए यही मन कहता है कि-
पिता तो पिता है, हमसे कब वो जुदा है’।

 

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