(ग्राउंड जीरो से संजय चौहान!)
उत्तराखंड के पहाडों में उगने वाला झंगोरा खरीफ ऋतु की फसल है, क्योंकि पानी के लिये यह बरसात पर निर्भर रहती है। विपरीत परिस्थितियों में भी झंगोरे की फसल तैयार हो जाती है। पृथक राज्य आंदोलन/उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी इसी वजह से एक नारा दिया गया था, जो आज भी हर किसी की जुबां पर है। कोदा-झंगोरा खायेंगे उत्तराखंड बनायेंगे। इसका वानस्पतिक नाम इकनिक्लोवा फ्रूमेन्टेंसी (Echinochloa frumentacea) है। झंगोरे में कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, प्रोटीन, वसा, कैल्शियम, आयरन, मैगनीशियम तथा फास्फोरस आदि पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्र में पाए जाते हैं। जबकि झंगोरा में कच्चे फाइबर की मात्रा 9.8 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 65.5 ग्राम, प्रोटीन 6.2 ग्राम, वसा 2.2 ग्राम, खनिज 4.4 ग्राम, कैल्शियम 20 मिलीग्राम, लौह तत्व पांच मिलीग्राम और फास्फोरस 280 ग्राम पाया जाता है। अपने पौष्टिक तत्वों और लाजवाब स्वाद की वजह से झंगोरा लोगों के बीच बेहद पसंदीदा है। खासतौर पर झंगोरे की खीर का हर कोई मुरीद है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स व उनकी पत्नी कैमिला पारकर तथा पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी झंगोरे की खीर की सराहना कर चुके हैं। पहाड़ में झंगोरे की खीर, भात और छछिया, (छछया, छिछिडु) आदि पारंपरिक लोकप्रिय व्यंजन प्रसिद्ध हैं। झंगोरा सुगर के मरीजों के लिए रामबाण औषधि है, जबकि वजन कम करने के लिए भी उपयोग में लाया जाता है।
लेकिन सबसे दुःखद ये है कि पौष्टिक गुणों की भरमार के बाबजूद आज झंगोरे की फसल धीरे-धीरे खेतों से गायब होने लगी है। मैगी, पिज्जा और बर्गर के दौर में झंगोरे को पूछने वाला कोई नहीं है।
सरकारों को चाहिए की इस बेशकीमती अनाज को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ धरातलीय योजनाओं को अमलीजामा पहनाया जाय। ताकि लोगों की आर्थिकी बढ़े और स्वास्थ्य भी तंदुरुस्त हो सके…।