पलायन……………! तू यहीं रुक अपना झोला तैयार है..?
(मनोज इष्टवाल)
आखिर ऐसी नौबत आन ही क्यों पड़ी कि हमें पलायन पर चिंतन करना पड़ रहा है। गॉव चलो, गॉव बचाओ रैलियाँ यात्राएं करनी पड रही हैं. आखिर कौन है वह जिम्मेदार जिसने हमें इस बैभव से बंचित कर शहर की तंग कोठियों, मोहल्लो तक सीमित कर दिया है। हम सबको पता है कि हम एक सुर में कहेंगे वर्तमान राजनीति।
लेकिन मैं यह बात नहीं मानता क्योंकि इस पलायन की सबसे बड़ी जड़ हम खुद हैं उसके पीछे शिक्षा स्वास्थ्य और बच्चों का भविष्य आ जाता है।आखिर आये भी क्यूँ नहीं..? कब तक हम फौजी बन्दूक बोककर सीमा में गोली खाते हुए शहीद होते रहेंगे और देश के दलाल इस देश की बोटी-बोटी कर इसको औने पौने दामों पर बेचते रहेंगे, बहुत हुआ यार…! क्या देशभक्ति सिर्फ हमारे ही कांधो पर है क्या ईमानदारी की मोहर भी गरीबी का ठप्पा बनकर हमारी पुस्त दर-पुस्त चलती रहेगी। अब तो हमें भी चेतन होना है।
ऐसे ही कई झंझावत उस हर पहाड़ी के ह्रदय में हैं जिसे सूरज की किरणों का पहला प्राणायाम मिलता था जो प्रकृति की अनुपम छटा में फलवित पुष्पित होकर अपने बालपन से ही पर्यावरणीय आनंदित जीवन यापन करता था. लेकिन वर्तमान की भागदौड़ में सिर्फ यही एक ऐसा प्रदेश बचा है जिसने राज्य निर्माण के बाद गॉवों से शहरों की ओर सबसे ज्यादा पलायन किया और निरंतर करता आ रहा है।
हम सब जानते हैं उसके पीछे कारण भी हैं. सबसे बड़ा कारण यह है कि मेरे बाप दादा ने हाड-तोड़ मेहनत से जो कमाया जो स्वप्न मेरे भविष्य के लिए देखे वह गॉव में पूरे नहीं हुए तो शहर का रुख किया। माँ ने भी सोचा कि बिना ज्यादा परिश्रम किये चैन से जीवन यापन हो रहा है, घर सम्भालने वाले चाचा ताऊ तो हैं. चाचा ताऊ का लड़का बड़ी मुश्किल से अभाव में जीवन यापन कर हाई स्कूल इंटर पास करके कहीं फ़ौज में हुआ या फिर किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी लगा या दिल्ली जाकर फैक्ट्री में काम किया जो पढ़ नहीं पाया साहब के भांडे-बर्तन मांजे और जीवन यापन करना शुरू किया। मैं पढ़ लिख कर अच्छे पद पर जा पहुंचा. देखा देखि करके मेरे चाचा ताऊ के बेटों ने भी अपने बच्चों के भविष्य के सपने देखे और फिर एक के बाद एक ने शहरों में किराए पर रहे या घोसलें बनाए बच्चों को शिक्षित किया और भावियों बहुओं को भी लगा कौन पहाड़ पट्ठारों से लकड़ी घास लाये कौन खेतों में गुड़ाई नीलाई करे कौन दूर धारे से पानी लाये कौन बिमारी में मीलों पैदल चलकर डाक्टर के पास जाए। कौन दिये की रौशनी में आँखों को अंधा बनाए अब उनके बेटे भी लायक हुए तो आकर सुख साधनों में बसना ही हुआ.
यह कहानी मेरी नहीं बल्कि हर उस परिवार की है जिसने पहाड़ से पलायन कर अपनी खूबसूरत आबोहवा गंवाई, अपना वजूद खोया अपना समाज खोया अपना बैभव खोया अपना प्यार प्रेम प्रीत भाई चारा खोया अपने मीलों तक फैले खेत खलिहान खोये अपना आँगन पंचायती आँगन खोया जहाँ सामूहिक कदम थिरकते थे वो अखरोट खडीक आडू तिमला बेडू भेमल के पेड़ खोये जिनका रस्वादन आज भी हम सबकी निर्जीव सी जीब में तरावट ला देता है. वह सूं-सूं की आवाज करते गाड़-गदेरे खोये वो गर्मियों में चलने वाली सर्द हवाएं खोई वो अस्मत खोई वो इज्जत खोयी वह सम्मान खोया और जाने और क्या क्या खोने को तैयार हैं इस तंग से शहर में।
अब हर गॉव बिजली से चौंधिया रहा है, अब हर गॉव सड़क पर गाड़ियां दौड़ रही हैं अब हर गॉव स्कूल पाठशाला है. लेकिन अगर कुछ नहीं है तो वो है गॉव में रहने वाला इंसान जिसे हम मनुष्य कहते हैं। बिजली आई तो हम जागे सड़क आई तो गॉव से सरकने लगे स्कूल खुले तो वो वीरान होने लगे।
आज का गॉव अगर देखा जाय तो वह भारत सरकार के जंगल बचाओ अभियान व वाइल्ड लाइफ सेंचुरी का जीता जागता उदाहरण है. जहाँ बन्दर, रीच, भालू बाघ यूँ टहलते हैं मानों इस गॉव में क्रिकेट मैच हो। जो बेचारा वहाँ रूककर जीना भी चाहता है पता चलता है कि भालू ने उसकी बहु बेटी माँ या पत्नी को बुरी तरह जख्मी कर दिया है या फिर बाघ नरभक्षी बन गया है बंदरों ने उसकी पसीने से सींची फसल तबाह कर दी है और हम यहाँ शहरों में नारा दे रहे हैं – गॉव बचाओ, गॉव चलो, पलायन पर चिंतन हो इत्यादि इत्यादि..?
दरअसल सरकारी ठोस नीति जबतक न हो तब तक यह निरंतर जारी रहेगा. या तो सरकार ऐसे लोगों का गॉव से वजूद ही समाप्त करे जिनकी तीन पुश्तें शहर में बस गयी हैं लेकिन गॉव के बंजर वे न बेच रहे हैं न ही उनमें रह रहे हैं. जब तक ऐसी नीति नहीं बनती कि जिसके खेत खलिहान घर आँगन गॉव में आज भी आबाद हैं वही उसका हकदार है और जिसके बंजर हैं उन पर सरकार कब्जा करेगी तब तक गॉव बसाने की पलायन रोकने की बात बेईमानी है। ऐसा अगर हुआ तो सच मानिए लोग अपने बंजर खेत खोदने के लिए नेपाल या बांग्लादेश से मजदूर न लेकर आयें तो शर्त की बात है।
हम अतिवादी हैं, गॉव जाकर कहते हैं तुम यहीं ठहरो मैं होकर आता हूँ क्योंकि मेरा तो झोला पहले से इसलिए तैयार है क्योंकि मैं सूंघ चुका हूँ कि अब यहाँ के दिन लद गए हैं यहाँ ठहरना उतना ही मुश्किल है जितना हिमालय पर चढ़ना. क्योंकि न सरकार के पास ठोस नीति है न हममें ही ऐसी कुब्बत है कि हम बर्षों से बंजर पड़े अपने खेतों को आबाद कर सकें, खंडहर हुए बिशालकाय मकानों को चुनकर उसमें अपने गुजर बसर के संसाधन ढूंढ पाए। हमने गलती यह की कि शिक्षा के नाम पर बच्चों को शहर भेजने के स्थान पर खुद उनके साथ पलायनवादी बन गए. काश…कि हमने हिमाचल जैसे पडोसी राज्य या फिर अपने रवाई जौनसार क्षेत्र के लोगों से सबक लिया होता जिन्होंने घर नहीं छोड़ा व उनके बेटे आज देश में बड़े-बड़े पदों पर कार्य कर देश व उस क्षेत्र का मान बढ़ा रहे हैं. हर गॉव आज भी वहां खुशहाल है हर चौखट से खुशबु का धुंवा उठता है।समृधि का दीप जलता है वहां न सूअर हैं न बंदरों का भय न ऐसा नरभक्षी ही है. उन्होंने हमारी तरह भागने के लिए कभी झोला तैयार नहीं रखा।