Sunday, September 8, 2024
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पलायन एक चिंतन…! पलायन को ठेंगा दिखाती यह हरियाणवी बहु!

पलायन एक चिंतन…! पलायन को ठेंगा दिखाती यह हरियाणवी बहु! (ट्रेवलाग 15 दिसम्बर 2016)

(मनोज इष्टवाल)
जिसका जन्म हरियाणा के यमुना नगर में हुआ हो। बचपन से जवानी तक पूरे बसन्त मैदान में ही बिताएँ हों । कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण कर अपनी जिंदगी गुजारने के लिए वीरान हो रहे खेत खलिहानों का श्रृंगार करने अपने पति के गॉव चली आई हो। ऐसी पहाड़ की बेटी या बहु को आप क्या कहेंगे।


यह बेटी चौंदकोट क्षेत्र की ही है। गवाणी गॉव में इनका पैतृक घर था जहाँ अक्सर छुट्टियों में आना जाना रहता था। गवाणी गॉव की गौनियाल जाति की यह बेटी अब ससुराल से सुन्द्रियाल बन गयी है।
अभी दो दिन पूर्व की ही तो बात है जब अपने भतीजे की शादी में सुबह प्रातः 5 बजे में कुई गॉव के आस पास के मंजर में भोर के पहर को अपने कैमरे में क़ैद करने के लिए निकला था। तब निर्मला सुन्द्रियाल नामक इस बहु को मैंने गाय बच्छियों की रस्सी पकड़े छानी से चौक में लाते देखा। सुन्दर चेहरे पर शिष्टता की मुस्कराहट के साथ ही मुझे आभास हो गया था क़ि यह लडक़ी/बहु पढ़ी लिखी है।
मैंने मूक अभिवादन में ही प्रश्न किया- अरे वाह, इत्गा सुबेर लेकी…! अभि त गौंका ल्वखुं का द्वार मोर भी नि खुला? (अरे वाह इतनी सुबह सबेरे! अभी तो गॉव के लोगों के द्वार कपाट तक नहीं खुले है?


उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर हिंदी में देते हुए कहा- आप शायद रात भर शादी के कारण जगे रहे तभी आप इतनी जल्दी सर्दियों का बिस्तर छोड़कर उठ खड़े हैं. शायद ढोल-दमाऊ की आवाज या गोत्राचार होने के कारण आप सोये ही नहीं।बवह बोली-मेरा तो यह नित नियम है।
मैं निर्मला सुन्द्रियाल के प्रजेंस ऑफ़ माइंड की दिल ही दिल दाद दिए बगैर नहीं रह सका. हाँ इसलिए भौंचक था कि इस महिला की हिंदी में गढ़वाली टोन का पुट कम क्यों है।
गाय बच्छियों को घास चारा देते हुए उन्होंने कहा- आईये बैठिएगा आपको चाय पिलाती हूँ। हमारा घर ये बगल में ही है। मैंने कहा नेकी और पूछ-पूछ! इतनी सुबह अच्छी सी चाय मिल जाय तो और क्या चाहिए।  मुझे ड्राइंग रूम में बिठाकर वे मुश्किल से १० मिनट में चाय लेकर आई व वही से आवाज़ देकर बोली- निधि हे निधि…! उठ जा अब! गाय दूहने का समय हो गया है।
आँखें मिचमिचाती एक नई नवेली दुल्हन सी भी तब तक नीचे पहुँच गयी। शायद उन्हें आभास नहीं था कि कोई बैठा होगा। मैं तपाक से ठट्ठा करते हुए बोला- अरे कल तो मैंने आपको सोचा कि अनमैरीड लड़की हैं, लेकिन मांग का सिन्दूर देखकर चुप रह गया वरना जन्मकुंडली मांगने वाला था।
वो भी अभिवादन करती हुई बोली-हाँ आप ही नहीं एक और सज्जन भी थे जो यही कह रहे थे।अब पता लगा कि निधि सुन्द्रियाल, निर्मला सुन्द्रियाल की देवरानी है। निधि के पति पंकज सुन्द्रियाल दिल्ली में प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत हैं व निधि का मायका पौड़ी के नजदीक गगवाडस्यूं के पाबौं गॉव है।


मैंने चाय की चुस्कियों के बीच आखिर निर्मला सुन्द्रियाल जी से घुमाकर पूछ ही दिया कि वह इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेती हैं, और अभी तक उनके पतिदेव क्यों नहीं दिखाई दिए?  उन्होंने जवाब दिया – अरे वे कल आपसे बात तो कर रहे थे शायद। मेरे पति श्री अशोक सुन्द्रियाल हैं जो गवाणी में ही अध्यापक हैं।
रही हिंदी की बात तो मैं समझ रही हूँ आप कहना क्या चाहते हैं। आप सोच रहे हैं गढ़वाल में रहकर हिंदी में बात कर रही है। अरे ऐसा नहीं है। दरअसल मैं हरियाणा से हूँ व मेरा पूरा एजुकेशन ही वहां हुआ । मैंने भी बी.एड. किया हुआ है टी ई टी की तैयारी भी चल रही है।
मैंने प्रश्न किया- आजकल तो गॉव की लडकियां भी शहर के लड़के तलाश रही हैं ताकि उन्हें पहाड़ में काम न करना पड़े। आप तो शिक्षित भी हैं और सुंदर भी फिर पहाड़ कैसे चुना, जबकि आप देख ही रही हैं कि यहाँ घर के आगे के खेत तक बंजर हो गए हैं आधे से ज्यादा मकान बंद हैं और कई खंडहर हो गए हैं।
उन्होने मुस्कराते हुए जवाब दिया – खुशियों के लिए जरुरी नहीं क़ि महल हों या वैभव विलास की वस्तुवें। खुशियां हर उस जगह आप स्वयं जुटा सकते हैं जहाँ आपको अपनी रह गुजर करनी हो।
मेरे पति व मेरी पहचान तब हुई जब मैं गॉव आई थी। आत्मीयता प्यार में बदली कुंडली जुडी और मैंने एक पल के लिए भी नहीं सोचा क़ि गॉव में कैसे जिंदगी काटूंगी। आज शादी के 10 साल हो गए हैं दो बच्चे भी हैं । मैं घास लकड़ी, खेत,खलिहान, गोबर माटी, चूल्हा चौका, कुदाल, दरांती सब काम करती हूँ। शुरूआती दौर में प्रशिक्षण में हाथ भी छिले खून भी निकला लेकिन मुसीबत नहीं समझी। गॉव में जो शुकुन है वह शहरों में सिर्फ सेल्फिश बनने से हम ढूंढने की कोशिश करते हैं। यहाँ पीड़ाएँ जरूर हैं लेकिन निस्वार्थ भाव का छलकता प्रेम भी है। जिन्हें गॉव बोझ लगते हैं उनसे मैं यही कहूँगी क़ि इसे दैनिक दिनचर्या में अपनी खुशियों का आशियाँ समझकर तो देखिये। जिंदगी के रंग ही बदल जॉयेंगे।
मेरा नित नियम है सुबह 4 बजे उठना और 10बजे तक सो जाना । भला ऐसी शुकुन की नींद और काम की मीठी थकान आपके शहर देहरादून में कहाँ मिलेगी?
मैं अपलक उनकी बातें सुनता रहा दोनों देवरानी जिठानी ऐसे लग रही थी जैसे बहने हों। बातों का सिलसिला आगे भी बढ़ता लेकिन उन्हें ध्यान आया क़ि जहाँ गाय बंधी है उसके आँगन में तो वेदिका बनी है जहाँ फेरे होने हैं। छोटी निधि आटा चारा घोलकर परातनुमा बर्तन पर ले आई थी। निर्मला सुन्द्रियाल बोली- आप बैठिए हम दूध दूह कर आते हैं क्योंकि फिर वहां फेरे होने हैं।
मैंने चाय की अंतिम चुस्की ली और धन्यवाद कर उठ खड़ा हुआ। मुझे खुशी हुई क़ि मेरी सुबह बेकार नहीं गयी क्योंकि आज मेरी कहानी का पात्र एक ऐसी बेटी या बहु थी जिसने मैदानी सुखों को धत्ता बताते हुए पहाड़ जैसे हृदय से पहाड़ को अपनाया। ऐसी पर्वत पुत्री को मेरा सलूट…!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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