(मनोज इष्टवाल)
सतपुली के इस वृत्तांत को लिखते लिखते सचमुच मेरी आँखें भर आई. संवत 2008 यानी लगभग 1952-53 का यह वह समय था जब सतपुली की नयार नदी पर पुल नहीं होता था और सारी मोटर गाड़ियों का जमावड़ा नयार के किनारे हुआ करता था। इसी काल में जब नदी उमड़ी और अपने विराट रूप में मोटर गाड़ियों को बहाती ले गयी तब उस दौर को किसी गीतकार ने अपनी कलम में ढालकर यह कारुणिक गीत लिखा जिसमें शिबानंद के पुत्र गोबर्धन ने अपनी अहलीला समाप्त होने से पहले हर संभव प्रयास किया और जब लगा कि अब बच नहीं पायेगा तो छाती में बांधे अपनी जिंदगी भर की कमाई जोकि उसने एकएक रूप्या कर अपनी शादी के लिए जोड़े थे। बीच नयार से इसलिए फैंके थे कि मैं तो गया यह रकम किसी के काम तो आएगी लेकिन वो रुपये कहाँ नदी तट तक पहुँचते।गोबर्धन की शादी जोकि मार्गशीष माह में थे वह उसके सपनों की तरह जल समाधि में समां गयी। अंत काल में अपनी जन्मदायिनी माँ को याद करने वाला गोबर्धन देखते ही देखते अपनी गाडी सहित जल में शमां गया। इस नयार में त्रासदी में डूबे लोगों की नेम प्लेट आज भी सतपुली के बिजली घर में लगी हुई है जिसकी फोटो साहित्यकार अरुण कुकसाल द्वारा सोशल साइट पर डाली गई है। सचमुच बेहद कारुणिक गीत जो किसी के भी आंसूं ला दे। लीजिये आप भी एक नजर देख लीजियेगा-
द्वी हजार आठ भादों का मास, सतपुली मोटर बौगीग्येनी ख़ास।
स्ये जावा भै बंधो अब रात ह्वेग्ये, रुणझुण-रुणझुण बारिस ह्वेग्ये।
काल सी डोर निंदरा बैगे, मोटर की छत पाणी भोरे ग्ये..!
भादों का मैना रुणझुण पाणी, हे पापी नयार क्या बात ठाणी।
सबेरी उठिकी जब आंदा भैर, बौगिकी आन्दन सांदण खैर।
डरेबर कलेंडर सब कट्ठा होवा, अपणी गाडीयूँ म पत्थर भोरा।
गरी ह्वे जाली गाडी रुकी जालो पाणी, हे पापी नयार क्या बात ठाणी।
अब तोडा जन्देउ कपडयूँ खोला, हे राम हे राम हे शिब बोला।
डरेबर कलेंडर सबी भेंटी जौला, ब्याखुनी भटिकी यखुली रौला।
भाग्यानु की मोटर छाला लैगी, अभाग्युं की मोटर छाला लैगी।
शिबानंदी कोछायो गोबर्दनदास, द्वी हजार रुपया छया तैका पास।
गाड़ी बगद जब तैंन देखि, रुपयों की गडोली नयार फैंकी।
हे पापी नयार कमायूं त्वेको, मंगशीर मैना ब्यौ छायो वेको।
सतपुली का लाला तुम घौर जैल्या, मेरी हालत मेरी माँ मा बोल्यां।
मेरी माँ मा बोल्यां तू मांजी मेरी, मी रयुं माँजी गोदी म तेरी।
द्वी हजार आठ भादों का मास, सतपुली मोटर बौगीग्येनी ख़ास।
यह गीत एक काल में बहुत प्रचलित था। बाँघाट का बादी समाज हो या फिर सूरदास जोधाराम जी। उनके ढोलक व घुंघुरू व इनकी ढपली पर यह गीत कई दशकों तक गुंजायमान रहा जो आज भी अनवरत जीवित है।