(मनोज इष्टवाल)
क्या भला कोई तबले पर विशालकाय ढोल के बोल बजा सकता है…सभी कहेंगे भला यह कैसे संभव है लेकिन इस असम्भव से कार्य को संभव कर उत्तराखंडी संगीत जगत में एक होनहार ने अपनी जो उपस्थिति दर्ज की वह बिलक्षण है। उत्तराखंडी लोकसंगीत को अपने हाथों से बुलंदियां देने वाले तबला वादक सुभाष पाण्डेय शायद पहले ऐसे लोककलाकार हैं जिन्होंने बहुत छोटी सी जगह से उठकर संगीत जगत में धमाल मचाया है. वह पहले ऐसे तबला वादक हैं जिन्होंने तबले में ढोल के बोल बजाकर उत्तराखंडी संगीत में सनसनी फैला दी. यही नहीं उन्होंने तबले में हर सम्भव यह प्रयास किया है कि हर रिदम में हमारा लोक सजे और संवरे।
पौड़ी गढ़वाल के असवालस्यूं पट्टी के सौंडल गॉव में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे सुभाष पाण्डेय ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें एक दिन उत्तराखंडी संगीत पटल के आसमान पर सितारे की तरह अपनी चमक बिखेरनी होगी।
अपने साथियों के साथ गढ़ कला मंच के बैनर तले कम संसाधनों में संगीत का सफ़र करने वाले सुभाष पांडे ने कई बर्ष यूँही जाया किये एक मामूली सी ढोलक पर थिरकती उनकी अँगुलियों का जादू जब मंचों पर चला तो गढ़ कला मंच की जय जय कार गूंजने लगी। सुभाष पांडे कहते हैं कि गढ़ कला मंच का वह प्लेटफ़ॉर्म उनके लिए वरदान साबित हुआ।
उन्हें आज भी याद है कि जब वह ढोलक लेकर कहीं कार्यक्रम में शिरकत करने निकलते थे तो घर वालों के यही ताने होते थे कि क्या इसी से तेरी व तेरे परिवार की रोजी-रोटी चल जायेगी, लेकिन संगीत से अगाध प्रेम करने वाले सुभाष पांडे ने इन तानों को एक सबक के रूप में लिया और यह ठान लिया कि यही एकदिन उनकी रोजी रोटी का जरिया बनेगा।
घर में आये दिन तानों से परेशान सुभाष पांडे को जब घर परिवार से कोई सपोर्ट नहीं मिला तो उन्होंने एक दिन स्वयं ही घर छोड़ दिया और जीवन यापन करने के लिए कभी बैंड पार्टी में शामिल होकर बैंड बजाना शुरू किया तो कभी ध्याड़ी मजदूरी कर भी जिंदगी जीने की कला सीखी। फिर एक दिन ऐसा आया कि गढ़वाल से मोहभंग सा हुआ और वे दिल्ली जा पहुंचे। दिल्ली के माहौल में अपने को ढालकर दिल्ली के स्टूडियो के चक्कर काटना और ढोलक पर रिदम बजाना उस जैसे अव्यवसायिक कलाकार के लिए दांतों तले लोहे के चने चबाना जैसा काम था क्योंकि संगीत का विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था। फिर भी इस बिलक्षण प्रतिभा के धनि व्यक्ति ने हार न मानी।
उनकी पारी की शुरुआत आखिरकार जगदीश बकरौला जी ने की उन्होंने अपने संगीत में उन्हें ढोलक पर संगत करवाई इसके बाद रंगीला जी के संगीत में उन्होंने ढोलक क्या बजाई कि उसके बाद हर जगह सुभाष पांडे की मांग बढ़ने लगी। पहाड़ी संगीत में अचानक सुभाष पांडे की उपस्थिति ने कई में बेचैनी भी पैदा की लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या..। अपनी धुन का पक्का यह लोककलाकार रात-दिन मेहनत कर आख़िरकार उत्तराखंडी संगीत में ऐसा स्थापित हुआ कि अब इस क्षेत्र का कोई भी ऑडियो ऐसा नहीं होता जिसमें सुभाष पांडे की अँगुलियों का जादू न चलता हो।
सुभाष पांडे ने जौनसार बावर क्षेत्र की वह टिपिकल रिदम भी बजाई जिसपर कई मर्मज्ञ संगीतकार झोल खा जाते हैं।
ईटीवी के झूमिगो कार्यक्रम का संगीत पक्ष सजाने वाले सुभाष पांडे ने अब तक लगभग तीन हजार ज्यादा एल्बमों को अपनी अँगुलियों के करतब सजाया है, जिनमें हिंदी,पजाबी, देहाती, भोजपुरी, लद्दाखी, राजस्थानी, गुजराती, असमियाँ इत्यादि सभी किस्म का संगीत मौजूद है…।
सुभाष पांडे ढोल के इतने मर्मज्ञ ज्ञाता है कि उनके वादन को देख ढोल सागर के ज्ञाता ढोली भी बिना वाह वाह किये नहीं रह पाते। स्टेज में आजकल सुभाष पांडे वेस्टर्न (साउथ अफ्रीका) के वाद यंत्र जेम्बे का प्रयोग करते भी नजर आते हैं जो अब प्रचलित होकर लोक भाषा में जय अम्बे के रूप में जाना जाने लगा है. इसका आकार नगाड़े की तरह होता है, लेकिन इसका निचला हिस्सा खुला रहता है। यह ढोल की क्षतिपूर्ति करता नजर आता है। यह अनूठा प्रयोग उत्तराखंडी संगीत को सुभाष पांडे की ही देन गिनी जा सकती है। विगत तीन बर्ष पूर्व रिलीज हुआ ऑडियो वीडियो अल्बम गैल्याणी (साहब सिंह रमोला) में यह पहली बार हुआ है जब सुभाष पांडे और इशांत डोभाल ने संगीत में की-बोर्ड का प्रयोग न कर सिर्फ एक्वेस्टिक इंस्ट्रूमेंट्स का ही उपयोग किया गया है। इसके गायक कलाकार साहिब सिंह रमोला और गायिका आकांक्षा रमोला हैं।
जयपुर घराने के कत्थक नृत्यक गिरधारी महाराज से संगीत का हल्का प्रशिक्षण लेने वाले सुभाष पांडे को जर्मनी में ढोल के प्रदर्शन का न्यौता मिला जहाँ उन्होंने भाषाई ज्ञान की कमी के बाबजूद भी ढोल बजाकर उसके रिदम और बोलों की भाषा को समझाकर वाह वाही लूटी। यही नहीं उन्होंने सात समंदर पार के देशों जिनमें दुबई, मस्कट, कुवैत और जर्मनी प्रमुख हैं में अपने उत्तराखंडी संगीत का जयघोष किया। सुभाष पांडे जिस बिलक्षण प्रतिभा से संगीत की बुलंदियों तक पहुंचे और जिस तरह उनकी अंगुलियाँ चर्मवाद यंत्रों पर थिरककर आदि कैलाश के ओमकार में समाती हैं उसमें संगीत के रचियता आदि शिव की ॐ का सुर कहीं न कहीं जरुर स्थापित होता नजर आता है।