(मनोज इष्टवाल 31 जनवरी 2020)
सुबह अपने तम्बू के एक छोर में कुछ पड़पड़ाहट सुनाई दी! नींद खुली तो सोचा कोई चूहा है या फिर टेंट के बाहर कोई जंगली जानवर..! थोडा सा मुंडी उठाई तो देखा दिनेश कंडवाल जी इस ठिठुरती ठंड में अपना कैमरा चेक कर रहे हैं! फिर आँखें मूंदी और मैं सो लिया! कंडवाल जी के आधे घंटे अंतराल में रतन असवाल जी भी उठ गए थे! मैं चाय का धस्की….! इस सोच में नहीं उठ रहा था कि शायद इन दोनों में से किसी एक को मुझ पर दया आ जाय और मेरे लिए तम्बू के अंदर ही चाय भिजवा दें! लेकिन ऐसा भला कहाँ होने वाला था! चाय की चुस्कियों की आवाज व रेस्तरां के बाहर गप्पों की आवाज में हमारा दुर्भाषा भी शामिल था! मैं जान गया था कि अब ऐसी उम्मीद रखना ठीक नहीं! लगभग 8 बजे उठा तो नारद गंगा तट पर बसे कैंप गोल्डन महाशीर से अभी धुंध गायब नहीं हुई थी! सूर्य देव भी शर्माते हुए उस धुंध का आलिंघन करते नजर आ रहे थे!
फ्रेश होकर चाय पी तो ठाकुर रतन असवाल का निर्देश जारी हुआ! आप सभी जल्दी नहा धो लो क्योंकि 11 बजे के आस-पास राजकीय इंटर कालेज के छात्र-छात्राएं, गुरुजन शैक्षिक भ्रमण पर यहाँ पहुंचेंगे व हमारे बीच लगभग पांच घंटे ब्यतीत करेंगे! कैंप का अपना अनुशासन हुआ सभी मशीनी हुए और नियत समय लगभग साढे नौ बजे नहा-धोकर नाश्ता करके फारिग हुए! मैंने दिनेश कंडवाल जी से पूछा –कुछ मिला? बोले- नहीं यार, धुंध थी! दो एक दिखी लेकिन फोटो इतनी बढ़िया नहीं मिली! दिनेश कंडवाल गजब के फोटोग्राफ्स खींचते हैं! उनके हाथ की सटीकता इतनी मजबूत है कि वह जब तक चिड़िया की आँख का भेदन न करें उसे फोटो खींचना ही नहीं मानते! गजब के बर्ड वाचर हैं! हर चिड़िया का नाम उन्हें मुंह जुबानी याद है! हिंदी नाम तो नहीं लेकिन अंग्रेजी नाम हर पक्षी का जानते हैं!
गोल्डन महाशीर कैंप में राजकीय इंटर कालेज मुंडनेश्वर के छात्र-छात्राएं व किट्टू..!
नियत समय से लगभग एक घंटे बाद लगभग 12 बजे जब मैं पुनः रेस्तरां में प्रविष्ट हुआ तो पाया स्कूली ड्रेस में छात्र-छात्राएं नाश्ता कर रहे हैं तो कुछ पंक्तिवार खड़े अपना-अपना नाश्ता ले रहे हैं! हैट लगाए गुरूजी मुकेश प्रसाद बहुगुणा को भला मैं कैसे भूल सकता था! उन्होंने भी देखते ही पहचान लिया जबकि एक मैडम व एक अन्य शिक्षक मेरे लिए नए थे! नाश्ता समाप्त हुआ और सभी बच्चे अध्यापक ठाकुर रतन असवाल जी के साथ कैंप भ्रमण पर निकल पड़े! मुकेश बहुगुणा जी ने मेरा परिचय अपने सहयोगी अध्यापकों से करवाया जिनमें एक श्रीमती कविता जोशी थी व एक अंग्रेजी के अध्यापक! साथ ही वे अपने कुत्ते किट्टू से भी परिचय करवाना नहीं भूले..!
पर्वतीय आजीविका उन्नयन शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र के अभियान संयोजक रतन सिंह असवाल छात्र-छात्राओं को उनके शैक्षिक भ्रमण के दौरान उन अनछुवे पहलुओं से रूबरु करवा रहे थे जो आने वाले समय में उनके लिए अमृत साबित हो सकता है! छात्र-छात्राएं जहाँ बेहद उत्सुकता से उन्हें सुन रहे थे उतनी ही उत्सुकता से कैंप कैसे होते हैं उन्हें देखने के लिए उनमें झाँकने के लिए नजर चुरा-चुरा कर देख भी रहे थे! बच्चों की मनोदशा समझते ही रतन असवाल ने छात्र-छात्राओं से कहा कि वे कैम्पों के अंदर जाकर उसका भी निरिक्षण कर सकते हैं! मैडम कविता जोशी के दिशा-निर्देशों के अनुपालन में छात्र-छात्राएं कैंप निरिक्षण के बाद जब बाहर निकल रहे थे तब उनकी अभिब्यक्ति बता रही थी कि यह संस्कृति उनके लिए बिलकुल अलग है!
आजीविका उन्नयन से कैसे युवा जुड़ें इस पर छात्र-छात्राओं को मैदानी सच्चाई दिखाने के लिए रतन असवाल उन्हें कैंप के उन समस्त कार्यों से भी रूबरू करवा रहे थे जो पूर्ण हो चुके थे व जो निर्माणाधीन थे! हर गतिमान कार्यों की समीक्षा के साथ छात्र-छात्राओं को कार्यस्थलों पर ले जाकर उन्हें समझा रहे थे कि कैसे उन्हें आने वाले समय में यदि नौकरी नहीं मिलती तो अपने रोजगार/स्वरोजगार को बढ़ावा देना है!
टूरिज्म, एडवेंचर टूरिज्म, वाइल्ड लाइफ टूरिज्म, पैराग्लाईडिंग, मत्स्य पालन, औधानिकी, कृषि, डेरी, हाई वैल्यू मशरूम, कुकुट व बकरी पाल, सौर ऊर्जा इत्यादि को उद्यमिता से कैसा जोड़ा जाय इस पर विस्तृत जानकारी जब रतन असवाल जब छात्र-छात्राओं के संग बाँट रहे थे तो सभी कुछ जरुरी टिप्स अपनी डायरी में लिखते भी दिखाई दिए! उन्हें ये इसलिए भी रोचक लग रहे थे क्योंकि यह उनकी दैनिक दिनचर्या के पठन-पाठन से बिलकुल हटकर था जो उन्हें रुचिकर भी लग रहा था!
इसके बाद उन्हें कैंप साइड इंचार्ज के दिशा निर्देशन में जंगल ट्रेकिंग करवाई गई जिसमें उनके साथ गए सभी शिक्षक भी साथ हो लिए! क्योंकि इस कैंप साईट पर वाइल्ड लाइफ ज्यादा है इसलिए अध्यापक शायद यह रिस्क भी नहीं लेना चाहते थे कि बच्चे अकेले जाएँ! कैंप से लगभग 800 मीटर दूरी पर स्थित रतन फाल तक पहुँचने के लिए इन छात्र-छात्राओं ने वाइल्ड फारेस्ट ट्रेक पार किया! इस ऊबड-खाबड़ रास्ते को लांघते पसीना पोंछते ये बच्चे जब रतन झरने के पास पहुंचे तो ख़ुशी से चिल्ला पड़े! जल की अठखेलियाँ इनके मन को प्रसन्न कर रही थी लेकिन ये सब बेहद अनुशासित छात्र दिखे! जल और जंगल में इनकी ऐसी कोई एक्टिविटी नहीं दिखी जिसके लिए उन्हें टोकना पड़े!
लौटने के बाद मध्याह्न भोजन के पश्चात प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में शैक्षिक भ्रमण पर आये इन छात्र-छात्राओं ने अपने अपने अनुभव बाँटें ! पलायन पर अंकुश कैसे लगे, दिनचर्या में अनुशासन जैसे कई बिषयों के बीच एक छात्रा ने जब यह प्रश्न किया कि रतन असवाल जी इसे अपने गाँव मिर्चोड़ा में क्यों नहीं लगवाते ताकि वहां के युवाओं को रोजगार मिले! रतन असवाल बोले- गाँव के पांच युवा दिला दो जो सचमुच गाँव से जुड़कर अपनी रोजी-रोटी कमाना चाहते हों तो वे आज ही तैयार हैं वहां भी गोल्डन महाशीर जैसा कैंप लगाने के लिए..!
पहाड़ो से जिस प्रकार से शिक्षित और धन कमाने के बाद पुरोहितों और देवी-देवताओं का जिस गति से पलायन हुआ है , उसका असर पर्वतीय जन जीवन के रोजमर्रा की जिंदगी में अब साफ नजर आने लगा है ।
पर्वतीय जनपदों की बसासतों की बेटियों का जिस गति से मैदानी नगरों में वैवाहिक पलायन हो रहा है उसके कारण स्त्री पुरुष के लिंगानुपात में अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है । समय रहते यदि इसके समाधान नही खोजे गए तो कालन्तर में राज्य के युवाओं के विवाह के लिए जीवन साथी को खोजने अन्य राज्यों पर निर्भर न होना पढ़े.. ऐसी आशंका से इनकार भी नही किया जा सकता है ।
सचमुच उनकी पीड़ा में वह पहाड़ था जहाँ कोई बेटा इसलिए घर में ही नौकरी या रोजगार प्रारम्भ इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उससे शादी करने के लिए पहाड़ में रह रही पहाड़ की बेटी ही तैयार नहीं है! शायद यहाँ से आये दिन पलायन की सबसे बड़ी वजह भी यही है!
क्रमशः….