- ( मोहन मदन कंडवाल)
जिसका हिन्दी नाट्य रूपांतरण *किस्मत पैलेस*, उत्तम गढ़ा ने किया है, का पहला मंचन एकलव्य थियेटर समूह द्वारा 10 अगस्त सायं 7 बजे से आकाशवाणी देहरादून के समीप से संस्कृति विभाग के सभागार में दो दशकों से ज्यादा समय से रंगमंच में दून के सुप्रसिद्ध रंगमंच संस्था एकलव्य द्वारा किया गया। डेढ़ घण्टे तक चले इस नाटक का मंचन देहरादून में शायद पहला कमर्शियल नाटक मंचन का अनुभव होना था, जिसे बखूबी इसके सूत्रधार अखिलेश नारायण के कुशल निर्देशन में अंजाम दिया गया।
सुभाष के लीड रोल में जहां खुद (सूत्रधार , निर्देशक) अखिलेश नारायण ने अपने मोनोलॉग्स, गम्भीर, कॉमिकल और चपल, सटीक टाइमिंग्स पर निसृत सम्वादों संग कैलिडोस्कोपिक अभिनय प्रतिभा से (जिसके लिये उन्हें हम उन्हें जानते आये है विगत वर्षों में मंचित कई नाटकों से मसलन कंस कथा, अंधा युग, कोर्ट मार्शल, तुगलक, एक रूका हुआ फैसला और कई अन्य भी) दर्शकों को आद्योपांत बांधे रखा, वहीं एकलव्य के नाटकों की धुरी बनती जा रही लीड नायिका के रोल में जागृति कोठारी ने अपने पल-पल बदलते संजीदा और कुटिलता के बीच झूलते चुटीले सम्वादों की अदायगी, मंच की आवश्यकता अनुसार विशिष्ट परिधानों/प्रॉप्स से मल्लिका के चरित्र को सार्थकता प्रदान करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी। नाटक का अंत का वह दृश्य जिंसमे विल को जलाती मल्लिका नाटक के शीर्षक को लोमहर्षक झटके से बदलकर जहां दर्शकों के मन मे कल्पित सुभाष (उनके ड्राइवर) और नर्स (ऐडनवाला की सेवा-सुश्रुषा के लिए नियुक्त नर्स) के सुखांत भविष्य को जोर का झटका धीरे से देती नजर आती है, जो दर्शकों के मन मे क्रेसेंडो की अवस्था का उद्घोष उनके संयुक्त चिल्लाने संग साक्षात सुनाई देता है, नाटक के सफल मंचन की बात खुद-बखुद कह जाता है।
ऐडनवाला की भूमिका में जयसिंह ने भी फिल्मों के आभिजात्य निर्देशक का कमाल का अभिनय किया जिससे नाटक को सफल रूप में स्थापित होने की संजीवनी मिली। उनके साथ मर्चेंट वकील की भूमिका में रितिक सिमल्टी अपने चरित्र में बखूबी न्याय करते नजर आए। गोखले बने लक्की बिष्ट का पहले-पहल सी बी आई इंस्पेक्टर वाला रूप कहीं भी उनके आत्म -विश्वास में कमी न दिखा पाया और वे भी सराहना के पात्र बनने लाजिमी है। विजय जो कृष्णा दत्ता बने और तीन कांस्टेबलों की भूमिका में समीर, हिमांशु और दीपक भी रोल कम होने के बावजूद अपना अपना दमदार प्रभाव छोड़ते नजर आए। नर्स स्वाति बनी प्रेरणा भल्ला का रोल के हिसाब से संकोची डरा- डरा मितभाषी स्लीपवाकिंग वाला अभिनय भी उनके सुनहरे भविष्य का परिचायक बनता नजर आया।
जहां नाटक अपनी कसावट, टाइमली संवादों , कथोपकथन संग हरेक कलाकार के सटीक औऱ शटल अभिनय (ओवर एक्टिंग की पूर्णतः अनुपस्थिति) के साथ निर्देशक के सफल संचालन का दर्शन करवा रहा था, अपने अभीष्ट की ओर अग्रसर रहा बिना कोई झोल के, वहीं सभी पात्रों द्वारा एक माह प्लस के कठिन अभ्यास से भी रूबरू करवाने में परोक्ष रूप से ही सही, सफल रहा। कमाल यह रहा कि कोई भी पात्र कहीं भी फम्बलिंग न किया और संशय, उहापोह, मर्डर से उपजे सस्पेंस, थ्रिल, भय, कुटिलता, चालाकी और महत्वाकांक्षा से ओतप्रोत मनोदशाओं में जहां मोनोलॉग्स में या डायलॉग्स में जहाँ फम्बल करना जरूरी था,उसमे चूका भी नही। लगा ही नही लाइव नाटक है यह एक फ़िल्म थी यह एक सफलतम कसा हुआ सधा हुआ सुगढ़ पुराने और नये कलाकारों द्वारा भावो ,अनुभावों, विभावों के रंगों से सजा इंद्रधनुषी प्रस्तुति थी जिंसमे जीवन के हर भाव को शब्दों की बाजीगरी से ही नही उनके सार्थक सम्यक प्रयोग से दर्शकों के मन मे अन्तस् में भाव अमृत-विष का मंथन करने में नाटक, कलाकार, स्क्रिप्ट, वेशभूषा, प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था सफल रही जिसके कारण दर्शक जी भर खिलखिलाए, हंसे, नाटक की स्थिति सँग बहते गए, चिल्लाये, हर रंग से हर अनुभव से संपृक्त हुए सन्तुष्टि से भरे, मन मे प्रशन्सा भाव लिए।
नेपथ्य में सैक्सोफोन की सस्पेंस भरी विलम्बित, मध्यम और इंटेंस/ तीव्र धुनें, संगीत सज्जा, प्रॉप्स, स्टेज व्यवस्था औऱ प्रकाश व्यवस्था सँग समग्रता में प्रभाव पैदा करते गए।
कौन दर्शक भूला होगा सुभाष के बड़बड़ाने को, आंखों की चमक, बुझन, चालाकी, मक्कारी और शातिरपने को, कौन भूल सकता मल्लिका के प्रभावशाली चरित्र अदायगी और मौकापरस्ती को या स्वाति के स्लीपवाकिंग में फ्रीजर से बॉटल्स हटाने सुभाष के उनके पुनर्व्यवस्थित करने के कॉमिक उपक्रम को, या स्वाति के गूंगी गुड़िया से वही सब फ्रीजर की विशेषताएं गिनवाने को जो सुभाष उसे फीड किया या उसका हर बार दरवाज़े की घण्टी बजने पर आश्चर्य-मिश्रित सम्बोधन को (*सुभाष*!!) या वह आत्महत्या या हत्या के सीन और शवों को ले जाते हुए शव का अभिनय या ‘दरवाजा बंद कर लेना’ की चुटकी या वकील, सी बी आइ समक्ष साहब- साहब की रट या भावी माँ कहन की शातिराना कोशिशें या चेक साइन होने से चमका चेहरा, सिपाहियों की स्टर्न भाव भंगिमाएं या ऐडनवाला, सी बी आई और वकील की अभिनय प्रतिभा से उपजे मनोभाव, बहुत कुछ कहा जा सकता है कुछ भी अतिश्योक्ति नही यहां।
व्यवधान केवल मंच मे खुले में अंधेरे या मोबाइल की रोशनी में साज-सज्जा बदलने से हुआ जो कलाकारों को ड्रेसेज बदलने के लिए कुशन टाइम बन रहा था। शायद स्टेज के दो हिस्से एक मे स्टेज सज्जा बदलने की तात्कालिक सहूलियत या स्टेज पर्दे की जरूरत, नाटक को डेढ़ घण्टे के बजाय सवा घण्टे भी कर सकती थी। नाटक की शुरुआत में एसी का देर से संचालन जहां दर्शकों को बेचैन किया , छह या साढ़े छह बजे के बजाय सात बजकर पांच मिनट पर नाटक शुरू करना भी आई पी के देर से आगमन की संस्कृति के समक्ष अवांछित तत्त्व था।
*एकलव्य आज वह मुकाम हासिल कर चुका है जिंसमे दर्शक कभी कह ही नही सकता कि एकलव्य का पर्याय नाटक का सफल मंचन नही होता बल्कि यह हर बार कितनी कठिनाइयों के बावजूद भी सफल ही नही सफ़लतर होता आया है।* कलाकारों की दशा और देहरादून में नाटकों के कमर्शियल मंचन पर अखिलेश के वक्तव्य से पूर्ण सहमति है हम दर्शकों की मदन डुकलान भाई की मेरी खुद की और शायद सब उपस्थित अनुपस्थित भविष्यगामी दर्शकों की भी। सत्तर अस्सी दर्शक तो थे ही ये ढाई सौ तीन सौ और खड़े-खडे चार सौ भी हो जाये, आमीन,।
*मुझे यह कहने में कोई संकोच नही कि अखिलेश और जागृति का मैं अभिनय सँग उनकी नाटकों के प्रति पैशन का मुरीद हूँ फैन हूँ* साथ ही उनके नए और कुछ सालों से साथ चलते सभी पुराने और नए कलाकार अपना शत-प्रतिशत देने में यकीन करते आये हैं, इस बात में भी कोई दो राय नही है। आज के सुविधाओं से भ्रमित करते युग मे अखिलेश के परिवार सँग उनकी सच की यह प्रवृत्ति उनके रंगमंचीय वितान में सुनहरे भविष्य की द्योतक तो है ही साथ-साथ सभी अन्य युवा कलाकारों संग जागृति की आत्मिक जागृति नाटकों के प्रति उनके भी सुनहरे भविष्य का आलेख जरूर लिखेगी, इन्ही संभावनाओं के सच होने की कामना सँग एकलव्य के फलने फूलने की शुभकामनाएं तो बनती ही है।
ऐंसे नाटकों के लिए 300 रुपये का टिकट कतई भी मायने नही रखता और संस्कृति के संवाहकों की भीड़ नही होती न तो कलाकारों में न दर्शकों में यह राग हर साज पर नही बजाया जाता है।
(#एक दर्शक कंडवाल मोहन मदन की आंखों देखी रिपोर्ट उन्ही की कलम से#)