(मनोज इष्टवाल संशोधित ट्रेवलाग/22-23 नवम्बर 2014)
लगभग 19 बर्ष पूर्व जब मैंने इस गाँव के उपर मंदिर के बिशाल थात में बिस्सू मेला देखा था तब वह जौनसार-बावर में पदार्पण का मेरा पहला अवसर था! उस दौर में पौड़ी वासियों के लिए ही नहीं बल्कि जौनसार बावर समस्त उत्तराखंड के जनपदों के लिए जहाँ बेहद आकर्षण का केंद्र था वहीँ आम जन मानस से कटा हुआ टोंस और यमुना के बीच के इस क्षेत्रवासियों की धर्म संस्कृति, लोक संस्कृति व लोक समाज के प्रति भिन्न-भिन्न भ्रांतियां थी! कोई इसे परियों का लोक कहता तो कोई तंत्र-मन्त्र का केंद्र! ठेठ वैसे ही जैसे बंगाल का जादू! लेकिन जब टोंस आर-पार के लोग इस मेले में जुड़े थे और यहाँ की लोक संस्कृति में थात में महिला पुरुषों का नृत्य देखा तो लगा था मानों दूसरे लोक में आ गया हूँ! सच कहूँ तो जलन सी हुई कि हम क्यों नहीं ऐसे हुए!
कल रात्री लोहखंडी के लोहारी गाँव की पुरानी दीवाली का आनंद लेने के लिए पहुंचा! यों तो आमन्त्रण मुझे इस गाँव के लोक संस्कृतिकर्मी कुंदन सिंह चौहान की ओर से विगत बर्ष भी मिला था लेकिन ब्यस्तता की बदौलत जाना नहीं हो पाया! विगत सप्ताह सूचना विभाग में कार्यरत जौनसार बावर के संस्कृतिकर्मी व प्रशासनिक अधिकारी केएस चौहान जिनसे मेरे मित्रवत सम्बन्ध भी हैं, ने सलाह दी कि इष्टवाल जी, आप अभी तक जौनसार के कोरवा, लखवाड, बिसोई, ठाणा, छटेऊ, खन्नाड़, सलगा, हाजा-दसेऊ, क्वाणु, कोटि सहित बावर के चिल्हाड़ की दीवाली को अपने माध्यम से विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं के अलावा राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल्स में दिखा चुके हैं! मेरा अनुरोध है कि इस बार आप जाड़ी गाँव या फिर लोहारी जाएँ वहां मैं फोन करके बता देता हूँ आपकी व्यवस्थाएं हो जायेंगी!
मैं बोला- मैं जाड़ी तो पिछली दीवाली में गया था लेकिन प्रॉपर रिस्पोंस नहीं मिला या कहिये मैं ऐसे समय पर पहुंचा जब ग्रामीण अमावस्या के होलों की खुमारी निकाल रहे थे और ज्यादात्तर घरों में दावतें चल रही थी! चौहान जी बोले- आप लोहारी जाओ! मैं कुंदन सिंह चौहान को फोन पर बताये देता हूँ वो पूरी व्यवस्थाएं कर देंगे क्योंकि वहां का जूडा नृत्य बहुत शानदार होता है! मन ही मन खुश हुआ और बोला- अंधे तुझे क्या चाहिए दो आँखें! लोक संस्कृति का कीड़ा तो बर्षों से मुझे काटता ही आ रहा ! सोचा कुछ अलग अद्भुत मिलेगा!
22 नवम्बर को मैंने अपनी बाइक उठाई और रुक्सेक कैमरा बैटरी जाँची और चल पड़ा कालसी, साहिया, चकराता होकर सीधे लोहखंडी-लोहारी! गाँव के मोड़ से ही ढोल की आवाज सुनाई देने लगी! जौनसार बावर के मेले और त्यौहारों का मुख्य आकर्षण जूडा नृत्य यों तो वीरगाथा काल का सजीव वर्णन दिखाई देता है लेकिन अपने को पांडवों के वंशज मानने वाले इस क्षेत्र के निवासी इस नृत्य को चक्रब्यूह संरचना से भी जोड़कर देखते हैं!
विशेषत: बिस्सू मेले या फिर पुरानी दीवाली के अवसर पर इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है जिसमें सफ़ेद पोशाकों में तलवार खुन्खरी फरसे हाथ में लहराते ग्रामीण रण-बांकुरों के भेष में अपने करतबों का सामूहिक प्रदर्शन करते नजर आते हैं! दरअसल इस पोशाक को वीरता और वीरों का प्रतीक मानते हुए यहाँ के बुद्धिजीवी इस पर अलग -अलग राय प्रस्तुत करते हैं! साहित्यकार रतन सिंह जौनसारी अपने को पांडवों का वंशज मानने के स्थान पर उन्हें ही खुद जौनसार बावर क्षेत्र के अनुशरणकर्त्ता मानते हैं वहीँ ठाणा गॉव के वयोवृद्ध साहित्यकार समाजसेवी कृपा राम जोशी इस युद्ध कला को पांडवों के काल से जोड़ते हुए कहते हैं कि यह युद्ध कला कालान्तर से अब तक ज्यों की त्यों जीवित है! वहीँ कांडोई भरम के ठाकुर जवाहर सिंह चौहान व चिल्हाड गॉव के धन्नासेठ पंडित माधौ राम बिजल्वाण (अब जीवित नहीं हैं) अपने को पांडवों के वंशज से सम्बन्ध करते हुए कहते है कि जूडा नृत्य चक्रब्यूह संरचना से जुडी वह युद्ध कला है जो सिर्फ ढोल के बोल और सीटियों की आवाज क़दमों की चपलता पर किया जाने वाला बेहद लोकप्रिय नृत्य है!
वहीँ संस्कृतिकर्मी अर्जुनदेव बिजल्वाण इसी नृत्य का एक पहलु थोउडा नृत्य भी मानते हैं जिसमें वे आखेट कला को जोड़कर देखते हैं और थोउडा को पांडव धनुर्धर अर्जुन की आखेट कला से जोड़कर देखते हैं!
बहरहाल इसके कितने प्रारूप हैं उन पर चर्चा करने का मतलब लेख को विस्तृत करना हुआ इसलिए संक्षेप में मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि मेरे द्वारा अभी तक इन 19 सालों में जौनसार बावर क्षेत्र के कई गॉवों के तीज त्यौहार में जाकर शोध करने की कोशिश की गई है! जहाँ तक जूडा नृत्य का प्रश्न हैं तो इसका आनंद सर्वप्रथम सन 1995 में मैंने कांडोई भरम के बिस्सू में लिया उसके बाद ठाणा गॉव की दीवाली, खन्नाड गॉव की दीवाली, सहित जाने जौनसार बावर के कितने अन्य गॉव की दीवाली में यह नृत्य कला सजीव होती देखी लेकिन मेरा आंकलन है कि जितना अच्छा प्रदर्शन इसका लोहारी गॉव में होता है वह अन्य कहीं नहीं है! इस बार की दीवाली में लोहारी गॉव के ग्रामीण बिशेषकर नवयुवकों ने मुझे हतप्रभ कर दिया! ये सिर्फ ढोल के बोल और सीटियों की गूँज में कभी गोलघेरा बनाते कभी अर्द्ध-वृत्त तो कभी कई घेरे एक साथ आप अन्दर घुसे और कब घेरे में कैद हो गए पता भी नहीं लगता ..! आप कैसे बाहर निकले यह कह पाना सम्भव नहीं है सचमुच यह किसी चक्रब्यूह संरचना से कम नहीं था!
यहाँ के संस्कृतिकर्मी कुंदन सिंह चौहान से मैंने इसे पूछा तो उन्होंने भी यही जवाब दिया कि यह चक्रब्यूह संरचना का ही एक हिस्सा है, क्योंकि अभिमन्यु का चक्रब्यूह में वध किये जाने के बाद से पांडवों द्वारा इस भूल को सुधारा गया था और फिर सभी सैनिकों को इस कला का ज्ञान दिया गया था!
खैर इस समय दीवाली की बात हो तो ठीक है! लोहारी में एक रात गुजारने के बाद सुबह पता लगा कि रात्रि को ही कोई बुजुर्ग चल बसे तो स्वाभाविक है कि दीवाली का जश्न फीका पड़ेगा मैंने संस्कृतिकर्मी कुंदन सिंह चौहान से पूछा कि मुझे अब किस गॉव की दीवाली देखनी चाहिए तो उन्होंने फ़ौरन मुझे कांडोई भरम की याद दिला दी! वही कांडोई जहाँ मैंने सन 1995 में बिस्सू मेले के साथ अपने जौनसार की यात्रा की शुरुआत की थी! फिर क्या था लोहखंडी से कोटि-कनासर, बिंसाऊण-मसणगॉव, संताड-हरटाड, रजाणु, गोर्छा, कुनवा, पिंगवा, ठारठा होता हुआ में अपनी धन्नो (मोटर-साइकल) से लगभग ४० लिमि. की यात्रा कर कांडोई पहुंचा! मेरी धन्नो को बधाई कि उसने सड़क की वह हर सीमा लांघ ली जिसमें पानी के कुंवे, और पत्थरों के अम्बार थे! पूर्व प्रधान जवाहर सिंह चौहान जी के सानिध्य में जो यहाँ की दीवाली का लुफ्त उठाया उसका बयान करना असम्भव है!
बहरहाल 23 नवम्बर 2014 अलसुबह मैं कुंदन सिंह चौहान से विदाई लेकर कांडोई गाँव के लिए निकल पड़ा! अब कांडोई सडक मार्ग से जुड़ चुका है जबकि बर्ष 1995 में मुझे यहाँ तक पहुँचने के लिए क्वानु से हिमाचल में प्रवेश कर पहले टोंस नदी लांघनी पड़ी थी और फिर अटाल से टोंस नदी लांघकर अपनी अम्बेसडर कार को छानी तक लानी पड़ी थी जहाँ से लगभग 3 किमी. की दम फुला देने वाली चढ़ाई चढनी पड़ी थी! अब आप कहेंगे कि दिवाली तो 21-22 अक्टूबर की थी ये नवम्बर में कैसे हो गयी तो आपको बता दूँ कि इस क्षेत्र में दीवाली एक माह बाद मनाई जाती है!
औंस्या रात, भिरूड़ी और जन्दोई में तीन तरह के पकवान चख चुका हूँ लेकिन सच कहूँ तो पेट अभी तक नहीं भरा! जौनसार बावर की इस बूढ़ी दीवाली का स्वाद ही निराला है! औंस्या रात की अगली सुबह जब होलियाच के होले जलते हैं तो लगता है पूरे क्षेत्र का यह प्रकाश पर्व आधुनिकता के लिवास में सजी मैदानी भू-भागों की सैकंडों बिद्युत लड़ियों और बम्ब पताकों का माकूल जबाब हैं कि देखिये सभ्य समाज के लोगों हम जो भी पर्व मनाते हैं उसमें जितनी खुशियों का इजहार हम खुद करते हैं उतना ही खुश प्रकृति के दामन को भी रखते हैं, क्योंकि न बम्ब पताकों का ही धुंवा आसमान को छूता है और न इस महंगाई के दौर में सिर्फ दो दिन के लिए लाखों करोड़ों की बिजली का भार सरकार के काँधे पर डालते हैं! यहाँ तो बस जश्न है वह….! जो ढोल की थाप और गीतों की चाल पर थिरकते पैरों के निशाँ से धरती माँ का अमूल्य श्रृंगार कर तन मन में बस केवल और केवल थिरकन लाता है वह भी ऐसे आलौकिक आनंद के साथ जिसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है!
यहाँ की चार खत्तों की बोली कंडवाण… न तो जौनसारी ही है और न बाउरी (बावर) ही है, क्योंकि यहाँ की बोली मेरे जल्दी से पल्ले नहीं पड रही थी! स्वाभाविक है दीवाली की परम्परा भी बिलकुल हटकर होगी लेकिन ज्यादा हटकर तो नहीं थी फिर भी होलियाच के होले जलने के बाद सुबह के समय ही जाड़ी से लेकर इस पूरे इलाके में भिरुड़ी के अखरोट सुबह ही फैंके जाते हैं जबकि जौनसार के ठाणा गॉव व आसपास के इलाके में भिरुड़ी के गीत व अखरोट होलियाच की अगली रात होती हैं! जबकि इस रात यहाँ जूडा नृत्य और खेलूटे का कार्यक्रम होता है और अगली सुबह जन्दोई मनाई जाती है! जन्दोई में इस क्षेत्र के लोग सुबह सबेरे हाथी या हिरन नृत्य करते हैं जिसमें गॉव का सयाना विराजमान होता है और इसी के साथ इस क्षेत्र की दीवाली सम्पन्न हो जाती है जबकि जौनसार के चकराता व आस-पास के क्षेत्र में जन्दोई की रात्रि यानि आज रात्रि हाथी नृत्य या हिरन नृत्य होता है जिसके साथ-साथ जूडा नृत्य और खेलूटे का खेल चलता है! बस इन दो क्षेत्रों में दीवाली में यही अंतर है!
सबसे बड़ा अंतर इस क्षेत्र के लिए एक और है! दुर्भाग्य से इस क्षेत्र की सडकों का जाल भले ही अब फैलने लगा है लेकिन सन 1962 में निर्मित चकराता-त्यूणी मार्ग की दशा इतनी ख़राब है कि पौड़ी के खच्चर भी इस सड़क पर चलने से कतराने लगे हैं! मुझे बेहद अफ़सोस होता है कि क्या यहाँ की जनता ही सोई है या फिर सिर्फ दो नामो की ही राजनीति में उलझी इस जनता को यह सब दिखाई नहीं देता!
काश…..आप भी मेरे साथ इस दीवाली का आनंद लेते! लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब यहाँ आकर पता चला कि हम से पहले यहाँ डॉ. डी.आर. पुरोहित आये थे और चले भी गए! एक बात और बहुत याद आई कि लगभग 19 बर्ष पश्चात जब मैं कांडोई पहुंचा तो यह नहीं भूला था कि पिंगवा गॉव का कोई सज्जन इस इलाके से पहला पी.सी.एस निकला था उसी बर्ष जिस बर्ष यहाँ का आखिरी बिस्सू था और उस बिस्सू में उस सज्जन ने भी शिरकत की थी! उसके बारे में पता किया तो नाम भले ही किसी को याद न आया हो लेकिन यह जरुर पता चला कि वे सज्जन इस समय हरिद्वार में पोस्टेड हैं!
मित्रों लेख लम्बा हो गया है लेकिन आपकी जिज्ञासा शांत करने के लिए जूडा की पोशाक के साथ दीवाली का सिर्फ वो बर्णन कर रहा हूँ जो जरुरी लगा उम्मीद है आप मेरी इस पोस्ट का लुफ्त जरुर उठाएंगे! बहरहाल तर्क जो भी हों मैंने भी इस बार कंडोई भरम की बिरुड़ी दीवाली में इस नृत्य पोशाक में हाथ आजमाए,और अनुभव किया कि वास्ता में इस पोशाक को पहनते ही शरीर जोश से लबालब भर जाता है!