(मनोज इष्टवाल)
सचमुच पहाड़ और पहाड़ियों की किस्मत में सिर्फ और सिर्फ गंगा के साथ बहने वाले वो निर्जीव गंगलोडे (पत्थर) ही हैं जो नदियों के बेग के साथ बहते बहते या तो रेत बन जाते हैं या फिर ऐसे गोल मटोल पत्थर जो कहीं दीवार चुनने के काम भी नहीं आते जबकि यहाँ की उपजाऊ मिट्टी मैदानों में बिछकर वहां उपजाऊ खेती का काम करती है! पहाड़ के हिस्से में सिर्फ गारे व पत्थर ही बचे रहते हैं! शायद यही कारण भी है कि राज्य निर्माण के बाद पहाड़ के नौ राज्यों से सबसे ज्यादा पलायन हुआ है! इस पलायन के पीछे स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल मुख्य मुद्दा बना हुआ है!
गंगा जमुना संस्कृति का यह पहाड़ जहाँ महाकाली व काली नदी से देश व राज्य की अन्तराष्ट्रीय सीमाएं नेपाल से बाँटता है वहीँ दूसरी और टोंस, रुपिन-सुपिन व यमुना के छोर से हिमाचल प्रदेश से राज्य की सीमा! सात महानदियों का इस प्रदेश के ज्यादात्तर गाँव आजतक राज्य व केंद्र सरकार की उपेक्षाओं व कागजी योजनाओं के चलते प्यासे ही रहे! जो प्रदेश शिक्षा व ज्ञान के क्षेत्र में पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता रहा है वहां सरकारी शैक्षणिक व्यवस्थायें बुरी तरह से चरमराई हुई हैं! जिस प्रदेश की द्रोणागिरी शिखर से संजीवनी ने जन्म लिया व त्रेता युग में लक्ष्मण यति के प्राण बचाए राज्य निर्माण के बाद उस प्रदेश के प्रत्येक अस्पताल डॉक्टर्स की राह जोहते रहे व मरीज भगवान भरोंसे..!
यह सब होने के बाद आखिर पलायन का ग्राफ बढ़ा और राज्य निर्माण के बाद यह ग्राफ 40 से 70 प्रतिशत बढ़ गया! पलायन आयोग का गठन भी हुआ लेकिन कागजी कार्यवाहियों में कहीं इस बात का जिक्र नहीं होता कि आखिर ऐसे कौन से मुद्दे हैं जिनके कारण पलायन की रफ्तार थमने का नाम नहीं ले रही! आखिर ऐसे में ले भी तो कैसे ले? सरकारी नौकरशाहों की अदूरदर्शिता के चलते व हमारे मंत्री विधायकों के भोलेपन व नासमझी के कारण जैसा नौकरशाही तन्त्र चाहता है वैसे ही सब नाच लेते हैं जबकि ये सब विधायक मंत्री जानते हैं कि पहाड़ियों के हिस्से में सिर्फ गारे व गंगलोड़े ही शामिल हैं!
स्वास्थ्य महकमें की अदूरदर्शिता का इससे बड़ा और नमूना क्या हो सकता है कि चार धाम यात्रा के लिए प्रदेश के पहाड़ी जिलों के लगभग 30 सर्जन, अर्थोसर्जन, फिजिशियन इत्यादि की तैनाती महानिदेशक स्वास्थ्य के आदेश पर चारधाम यात्रा रूट के मार्ग में रुद्रप्रयाग, चमोली व उत्तरकाशी जिले में कर दी गयी है! जबकि बाकी 6 पहाड़ी जनपद व वहां के लोग राम-भरोंसे छोड़ दिए गए हैं! चाहे राज्य की जनता मरे या जिए इस से इन्हें कोई वास्ता नहीं! वहीँ ठाठ बाट से अपने पर्सनल क्लिनिक व हॉस्पिटल चला रहे हरिद्वार, देहरादून व उधमसिंह नगर के मैदानी हिस्से के डॉक्टर्स पहले भी मजे में थे आज भी मजे में हैं! किसी की क्या जरुरत जो इन्हें टस से मास कर दें क्योंकि यहाँ की जनता विभाग के कपडे उतार देगी! बेचारे पहाड़ के वाशिंदों को तो यूँ भी हर रोज जीना व मरना पड़ता है!
आपको बता दें कि गढ़वाल कमिश्नरी पौड़ी व कुमाऊं कमिशनरी अल्मोड़ा के अस्पतालों में गिनती के डॉक्टर्स हैं उनमें भी बमुश्किल एक सर्जन होता है! इसी तरह बागेश्वर, पिथौरागढ़, नैनीताल, चम्पावत, टिहरी इत्यादि जनपद हैं! इन सभी जनपद के सर्जन व फिजिशियन अगर रोटेशन प्रणाली के तहत अपनी सेवाएँ प्रदेश के मात्र तीन जिलों में देंगे तो बाकी जनता किस भरोंसे अपनी स्वास्थ्य रक्षा करेगी यह प्रश्न विचारणीय है! क्या यह न्याय संगत व तर्क संगत है कि चार धाम यात्रा मार्ग हेतु पहाड़ के विभिन्न अस्पतालों के 30 चुनिंदे डॉक्टर्स लगा दिए जाए व बाकी जनमानस को भगवान् भरोंसे छोड़ दिया जाय?
ज्ञात हो कि स्वास्थ्य महानिदेशक रविन्द्र थपलियाल द्वारा विगत 12 अप्रैल 2019 को पत्र संख्या:-2प/रा.पु./चारधाम यात्रा/16/2019 को आदेश जारी करते हुए प्रदेश के 30 डॉक्टर्स को चारधाम यात्रा मार्ग पर तैनाती के आदेश प्रेषित किये हैं! अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या यह आदेश स्वास्थ्य महानिदेशालय की अदूरदर्शिता है या फिर नौकरशाही तंत्र की हिटलरशाही , जिन्हें जरा भी चिंता नहीं कि इस दौरान पहाड़ के बाकी 6 जिलों के लोग इलाज करवाने कहाँ जायेंगे व इनके स्वास्थ्य की चिंता किसे होगी! विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या स्वास्थ्य मंत्रालय उत्तराखंड सरकार की जिम्मेदारी सम्भाल रहे प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस आदेश की पूरी जानकारी है! और अगर है तो क्या इस निर्णय पर निर्देश जारी उनकी कलम से हुए हैं या उनके संज्ञान से हुए हैं?