गुराड़ गढ़ में 357 साल बाद गूंजी घिमडू हुडक्या की धक्की-धैंs..धैंs! वसुंधरा आर्ट्स का गोर्ला समाज व चौन्दकोट की माटी को नायाब तोहफा!
(मनोज इष्टवाल)
वीरांगनाओं का काल कभी खत्म नहीं हुआ क्योंकि जब भी जहाँ भी मातृशक्ति ने जो करने की ठान ली तो बस ठान ली! तीलू रौतेली ने एक बार दृढ़ संकल्प के साथ अपने दुश्मनों का अंत करने का मन क्या बनाया तो 7 बर्ष लगातार युद्ध झेलने व लडकर अपनी राज्य सीमा का विस्तार करती चली गयी ! और यौवन की दहलीज पर पाँव रखते ही शीश मातृभूमि के चरणों को अर्पित कर दिया! तीलू का किरदार निभाने वाली यह जुनूनी लड़की वसुंधरा भी कुछ यों ही लगती है! आखिर है भी तो कुरख्याल की ! जहाँ की हाणी-काणी (कथा-कहानियां) क्षेत्र में प्रचलित हैं!
गोर्ला थोकदार भुप्पू या माँ मैणा के बारे में लगभग तीलू के किरदार के बाद हम ज्यादात्तर लोग भली भाँती परिचित हो ही गए हैं लेकिन वर्तमान में गुराड़ गढ़ के ये गोरला हैं क्या ? यह जानना भी जरुरी है! विकास खंड एकेश्वर के पट्टी गुराड़स्यूं के गुराड तल्ला मल्ला ही नहीं बल्कि आस-पास के कई गाँव जिनमें मलथा-ग्वली सहित कई गाँव सरीक हैं यहाँ की आज भी कहावत है कि गोर्लों की बेटियाँ जो ठान लेती हैं तो ठान लेती हैं फिर मतलब ही नहीं है कि वे अपने कर्तब्य से पीछे हट जायं! जबकि गोर्ला पुरुष में महिलाओं की अपेक्षा इसका प्रतिशत थोड़ा कम आंका जाता रहा है! महिलायें आज भी अपनी आन बान शान के लिए उठ खड़ी ललकार देती हैं और सत्य के लिए बेहद न्याय प्रिय कही गयी हैं! यह सब आज भी है या नहीं मैं नहीं जानता लेकिन आज से चार दशक पूर्व तक यह कहावतें आम सी बात थी कि “भारे गोर्लों की नौनी मांगी लाणा छवा, त सोची समझीकि लैन, किलैकी औरी ब्वार्युं की तरौं ऊ दगाण म नी आंदी!” (गोरला जाति की बहु ला रहे हो तो सोच समझकर लाना क्योंकि और बहुओं की तरह वे जुल्म नहीं सह सकती)! यह तब की परिपाटी रही होगी जब सास बहुओं पर हुक्म चलाया करती थीं आज समाज बदल चुका है! तब अक्सर बड़े राजपूत घरानों से बहु लाना राजपूतों की शान में चार चाँद लगाना जैसा था!
यह सब अब अतीत है लेकिन इस अतीत के परिदृश्य उजागर करने के लिए वसुंधरा आर्ट की सचिव वसुंधरा नेगी जोकि इसी क्षेत्र की है ने आखिर ठान ही लिया कि वह उस वीरांगना का किरदार उसी की मातृभूमि में निभाएगी जहाँ से उसने अपने भाई भक्तु, पत्वा व पिता भुप्पू गोर्ला के अलावा मंगेतर भवानी नेगी के बलिदान की कसम खाई थी कि वे उनका अस्तित्व मिटाकर दम लेंगी जिन्होंने इन्हें मारा है! यह बेहद आश्चर्यजनक है कि जहाँ वसुंधरा नेगी ने “तीलू नाटक” का मंचन किया वहां कभी गुराड गढ़ी हुआ करती थी जिसका वर्णन “टिहरी रियासत” के रजिस्टरों में वर्णित है!
तीलू रौतेली का जन्म 8 अगस्त 1661 बताया गया है! और इसी माह लगभग 357 बर्षों बाद ठीक ग्यारहवें दिन उसकी इस वीर भूमि पर दुबारा उसके चारण घिमडू हुडक्या के हुडके की थाप गूंजी! मैंने वसुंधरा को इस माह यह रिस्क लेने के लिए मना भी किया था कि सावन भादों का काला महीना है हर तरफ बरसात से सारा जनजीवन अस्त-ब्यस्त है ऐसे में यह रिस्क लेना ठीक नहीं! इसे एक माह बाद कर लेना लेकिन भला वसुंधरा जुबान से पलटने वाली थी! स्थल चयन के लिए वह कई बार दिल्ली से गुराड़ पहुंची और आखिर नंदाख्यात में उन्होंने तीलू रौतेली पर नाट्य मंचन का विचार बना ही लिया!
18 अगस्त को नाट्य मंचन था और विगत चार दिनों से लगातार बारिश चल रही थी फिर मैंने शंका जाहिर की कि हो न हो वसुंधरा आपके एक माह की कठोर मेहनत पर पानी फिर जाए! वसुन्धरा हंसकर बोली थी- इष्टवाल जी, आप चिंता मत कीजिये! वह सब तीलू रौतेली देखेगी मुझे उस पर व अपने पर भरोंसा है कि एक बूँद भी तब यहाँ नहीं बरसेगी! मैं मन ही मन बडबडाया- पागल लड़की! अरे पागल न बोलूं तो क्या बोलूं विगत 2 अगस्त 2018 को अक्सिडेंट के कारण अस्पताल में भर्ती हुई जहाँ कुछ घंटों के लिए याददास्त चली गयी! वापस आई फिर प्रशिक्षण देने में लग गयी! चार दिन बाद फिर तेज दर्द हुआ फिर सतपुली हंस हॉस्पिटल में भर्ती हुई जहाँ एक्सरे जांच में पता लगा किफोर्थ रिब टूट गयी है! कमर पर प्लास्टर बांधा दर्द निवारक इंजेक्शन लिए और फिर शुरू हो गयी ! इस बार उसके साथ प्रशिक्षित टीम नहीं बल्कि आस-पास के गाँवों के बच्चों की वह टीम थी जिन्होंने कभी रंगमंच नहीं देखा! इस कार्य में नाट्यकर्मी अभिषेक मैंदोला भी उसका हाथ बंटाने जा पहुंचे जब उन्हें लगा कि ऐसी बिषम परिस्थिति में है! अरण्य के उदय रावत ने तो पहले ही अपना पूरा हाल रिहर्सल के लिए दे रखा था!
दिल्ली से उसकी सहेली खुशबु डिल्लो भी जा पहुंची! इधर पौड़ी से गणेश खुगशाल गणी भी जब वसुंधरा की खबर जानते हैं तो खुद ही वसुंधरा के कार्यक्रम के अनाउंसमेंट के लिए निकल पड़ते हैं! दिल्ली से इंडिया टुडे पत्रिका के अशोशियट आर्ट डायरेक्टर चन्द्रमोहन ज्योति भी पोस्टर डिजाईनिंग का जिम्मा उठा लेते हैं! देहरादून से उत्तराखंड फिल्म असोशियशन के अध्यक्ष सुनील नेगी व उपाध्यक्ष राजेन्द्र रावत भी तय करते हैं कि वसुंधरा को सपोर्ट करने जाना है! मुंबई से फिल्म व रंगमंच के सुप्रसिद्ध कलाकार बलदेव राणा भी गुराड़ आ पहुँचते हैं! लखनऊ के संस्कृतिकर्मी विक्रम बिष्ट भी चल देते हैं! अब कितनों का नाम गिनाये दिल्ली से बिसलेरी के प्रबन्धक दिगमोहन नेगी, रंगकर्मी/साहित्कार सतीश कालेश्वरी, रंगकर्मी रमेश चन्द्र घिल्डियाल, रंगकर्मी जगमोहन सिंह रावत, रंगकर्मी रमेश ठंगरियाल (घिम्डू का अभिनय किया) लता बवाड़ी, इंदिरापुरम दिल्ली की पार्षद मीना भंडारी, लक्ष्मी पटेल, सुनील अंथवाल, गोबिंद बिष्ट यंग उत्तराखंड दिल्ली के भास्कर कांडपाल, केसीएस रावत कोटद्वार से डॉ ईश्मोहन नैथानी, पौड़ी से वरिष्ठ पत्रकार गणेश खुगशाल गणी लैंसडाउन से महिपाल सिंह रावत, देहरादून से समाजसेवी कविन्द्र इष्टवाल, विनय पोखरियाल, (ज्ञात हो कि विनय वीरांगना तीलू रौतेली के गुरु शिब्बू पोखरियाल के पड़पौते हैं) नैनिडांडा से कवि धर्मेन्द्र नेगी, चौबटटाखाल से कवि/साहित्कार गिरीश सुंदरियाल, गवाणी से सुधीर सुन्द्रियाल व संजय बुडाकोटि, घेरुवा से हास्य कवि हरीश जुयाल कुटुज, सतपुली से पत्रकार गणेश काला, पत्रकार अजय रावत(घँडियाल बनेख), मनीष खुगशाल, चैन सिंह रावत, कल्जीखाल से नितिन पटवाल जबकि संगलाकोटी से चित्रकार बीएस नेगी, व भाष्कर द्विवेदी, दूरस्थ गोपेश्वर से गढ़वाली ड्रेस डिज़ाइनर व टोपी मेकर कैलाश भट्ट व बँगला देश से वीरेंद्र रावत जैसे कई नामी-गिरामी लोगों ने गुराड़ पहुंचकर वसुंधरा आर्टस के कलाकारों का उत्साह बढ़ाया! वहीं बदलपुर से 6 गाड़ियां भरकर पहुंची थी।
पूरे नाटय मंचन में भले ही चाहे साउंड सिस्टम रहा हो, या फिर स्टेज सज्जा या फिर उसका कला पक्ष ! यह सब शहरों के माकूल न रहा हो लेकिन फिर भी वसुंधरा नेगी के तरासे हुए ठेठ गाँव के ये हीरे पहली बार इतने भव्य मंच पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब हुए! समीक्षकों का कहना है कि अगर मंचन के हिसाब से इसका आंकलन किया जाय तो कुछ मंझे कलाकारों को छोड़कर ग्रामीण क्षेत्र से पहली बार मंच पर आये नाट्य कर्मियों का मंचन औसत रहा लेकिन उसके पीछे की गयी मेहनत से साफ़ जाहिर होता है कि ये जितने भी कलाकार पहली बार मंच पर आये उनका प्रदर्शन औसत प्रदर्शन से ऊपर आंककर देखा जाना चाहिए!
वसुंधरा नेगी के अलावा इस टीम में सिर्फ दो अन्य कलाकार ही ऐसे थे जिन्होंने पहले भी रंगमंच पर कई प्रस्तुतियां दी हैं जिनमें देहरादून से पहुंचे अभिषेक मैंदोला व दिल्ली से आये रमेश ठंगरियाल शामिल हैं बाकी 30 ग्रामीण कलाकार शामिल थे जिनमें बच्चे बूढ़े और जवान थे जिन्होंने रंगमंच क्या होता है पहली बार देखा! नाटक की स्क्रिप्ट, गीत, परिकल्पना और निर्देशन वह स्वयं देख रही है जिसमें संगीत संजय कुमोला का, गायक-मीना राणा, संजय कुमोला, विकास भारद्वाज, दिनेश चुनियाल व जितेन्द्र पंवार, ध्वनी और प्रकाश संयोजन अभिषेक मैंदोला, युद्ध निर्देशक गोबिंद महतो, प्रोडक्शन व मंच प्रबन्धन खुशबु डिल्लो, मंच संचालन-गणेश खुगशाल गणी, वेशभूषा शर्मीला दत्त, मेकअप नीलम डींगरा, कास्ट मैनेजर राकेश प्रसाद लाइव म्यूजिक सरबजीत टम्टा का है जबकि इसमें जितने भी कलाकार है सब स्थानीय है जिनमें तीलू रौतेली की भूमिका वह स्वयं निभा रही हैं।
इसके अलावा रामू रजवाड-कमलेश जुगरान, शिब्बू पोखरियाल लक्ष्मण सिंह नेगी, मैणा देवी- श्रीमती पूनम देवी, भुप्पू रौत- रविन्द्र सिंह नेगी, घिम्डू हुड्क्या- रमेश ठंगरियाल, देवकी रेनू रावत, सुर्जी- राधिका रावत, वेलु- कोमल रावत, चैती- नेहा नेगी, भवानी सिंह- आकाश रावत, भक्तू रौत- अभिषेक कुमार, पत्वा रौत – कुलदीप सिंह, राजा पृथ्वीशाह- मनोज भट्ट, धामशाही (कत्युर राजा)- अभिषेक मैंदोला व बांसुरी वादक- निखिल कुमार जबकि सैनिकों में आदित्य रावत, प्रियांशु कुमार, अर्पित रावत, अनुज कुमार, लवलेश रावत, प्रियांशु रावत, जतिन नेगी, विकास सिंह, पंकज रावत, संतोष सिंह, दीपक बूडाकोटी, विकास गुसाईं प्रमुख हैं!
वसुंधरा आर्ट की प्रस्तुति के तहत “द लीजेंड ऑफ़ तीलू रौतेली” गढवाली नाटक के प्र्स्तुतिकरण के लिए मुख्य आयोजक की भूमिका के रूप में तीलू रौतेली के वंशज लेफ्टिनेंट जनरल (अ.प्राप्त) जे.एस. रावत ऋतुराज अनुराग चेरिटेबल ट्रस्ट, संयोजक रंजना रावत व उदय रावत अरण्य रिट्रीट डांग्यूँ रीठाखाल ने अहम भूमिका निभाई है!
हर कार्यक्रम अपने पीछे अव्यवस्थाओं को छोड़कर आगे बढ़ता है ! मुझे लगता है कि वसुंधरा आर्ट को सपोर्ट करने वाले ग्रामीण इस बात को जरुर महसूस कर रहे होंगे कि काश…उन्होंने इसे मेले के तौर पर लेकर देखा होता तो दो चार दूकान चाय पानी की ही लगवा दी जाती जिससे बाहर से आये लोग कम से कम चाय-पानी तो पी पाते! लेकिन हर कार्य तभी पारंगत बनाता है जब वह अपने पीछे कमियाँ छोड़ जाता है! यहाँ पूर्व विधायक शैलेन्द्र रावत, जनरल रावत व उनके वंशजों को इस बात का फक्र तो हुआ ही होगा कि उनकी जन्मभूमि में उनकी वंशज तीलू रौतेली को जीवंत बनाने के लिए चौन्दकोट से भारी भीड़ इकठ्ठा हुई और उनकी सरहद में देश दुनिया के विभिन्न शहरों से आये लोगों ने घिमडू के हुडके की धक्की-धैंs धैंs सुनी!