Sunday, September 8, 2024
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क्या…….पाकीजा के गीत “ठाड़े रहियो ओ बांके यार” में तबले की घमक से शुरू हुआ लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी का सांस्कृतिक सफर!

क्या…….पाकीजा के गीत “ठाड़े रहियो ओ बांके यार” में तबले की घमक से शुरू हुआ लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी का सांस्कृतिक सफर!
(मनोज इष्टवाल)
ठीक यही महीना था और तारीख थी 15 अगस्त 1975 ! वे टोपी पहने हुए थे! मेसमौर इंटर कालेज में तब यह कार्यक्रम चल रहा था और मेरी तब प्लानिंग डिपार्टमेंट पौड़ी में अभी नौकरी की शुरुआत हुई थी! उस समय हमारे एडीएमपी डॉ. आर एस टोलिया थे जो बाद में मुख्य सचिव उत्तराखंड सरकार बने! पाकीजा फिल्म के इस गीत में जब पंक्ति आती है –“जागे न कोई….बोली छमाछम पायल निगोड़ी” के बाद जब तबले की लहर उठती है तो जिस दिलकश अंदाज में तबला बजा मैं उसका मुरीद हो गया! लेकिन जान नहीं सका यह तबलची है कौन?


सचमुच साहित्यकार, संगीतकार, गीतकार, लोकसमाज व लोक संस्कृति के धनी लोग जब कहीं शाम को तबियत से बैठते हैं तब न उनके बीच में खोखे दूकान में चाय की चुस्कियों के साथ दुनिया भर के राजनीतिक टंटों की ख़बरों से कोई वास्ता होता है न उस चाय की चुस्की में कोई राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री बनकर उसकी बखिया उधेड़ने वाला होता है और न एक दूसरे की दुःख परेशानियों का कोई कारण होता है! उनके पास समय होता है तो वह होता है उस फलक के छूते सितारे पर बात करने का जिसके बढ़ते कद के साथ उनकी यादों के समंदर की स्याही के बहते अल्फाज होते हैं!


हास्यकलाकार घना नन्द गगोड़िया के जन्मदिन से लौटे हुए अभी हम सब देहरादून के एक होटल के कमरे में बैठे ही थे कि डॉ. सतीश कालेश्वरी से कुछ अनुभवों की चर्चा लोक कला के क्षेत्र में व गीत संगीत के क्षेत्र से जुड़े अहम मुद्दों पर होने लगी! मैं, देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल, इंडिया टुडे के असोशियट आर्ट डायरेक्टर चंद्रमोहन ज्योति चुस्कियों में कभी कभी राग मल्हार छेड़ देते तो डॉ. सतीश कालेश्वरी आँखें बंद करके यादों के उस अपार समन्दर में डूब जाते जहाँ से जब आँखें खोलते तो सीप के मुंह में पड़े मोती उनकी आँखों में दिखाई देते और वो उसके तुरंत बाद उनकी दन्तिकाओं में सजकर बिखरने शुरू हो जाते! हास्य कलाकार घना नन्द पर बात हो और लोक संस्कृति के सम्राट लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी पर बात न हो तो भला यह कैसे हो सकता है!


डॉ. कालेश्वरी बताते हैं – उस दिन तो गजब ही हुआ जब तबले के वे बोल सन 1971-72 में गुलाम मुहमद के संगीत से सजे, जिसमें अभिनय मीना कुमारी, राजकुमार व अशोक कुमार ने किया था! शायद आपको याद हो गीत-मजरुह सुल्तानपुरी का था व उसके निर्देशक कमाल अमरोही थे! वे अपनी रौ में ऐसे बहे कि बाहर जोरदार बारिश ने मानों सचमुच तबले पर धा धिक् धा धिक् धा ना धा ना धा… छेड़ दिया हो! झमाझम बारिश के बीच ये शब्द यूँ उभर कर आ रहे थे जैसे हम सब उसके गवाह हों! डॉ. कालेश्वरी बोले- अरे साहब उस दिन मत भूलिए कि क्या हुआ यों भी इस फिल्म का जादू उस दौर में लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था! मुझे आज भी नहीं भूला वह दिन जब हम 15 अगस्त 1975 में मेस्मौर इंटर कालेज पौड़ी के उस कार्यक्रम में पाकीजा फिल्म के इस गीत –“ठाड़े रहियो ओ बांके यार रे….में तबले पर थिरकती उन अँगुलियों के जादू की मैकशी में उलझकर रह गए! गायिका कौन थी और उसकी आवाज क्या थी यह तो ध्यान से याद नहीं आता लेकिन तबले की करामात ने सबको दीवाना बना रखा था ! आपको याद होगा कि जैसे ही इस गीत में बोल उभरते हैं- “मैं तो कर आई सोलह श्रृंगार रे-2 और उसके बाद धा धिक् धा धिक् धा ना धा ना धा…! के बाद तबला की थाप गूंजती है तो मत पूछिए उन अँगुलियों ने व उस हथेली ने क्या करामात ढाही!
फिर जन्माष्टमी आई और पुलिस लाइन पौड़ी में झंकार क्लब लैंसडाउन प्रस्तुती देने पहुंचा जिसमें मेरी भूमिका हमेशा ही महिला नृतिका की होती थी ! चाहे वह नाटक हो या गीत महिला के कपडे पहनकर मैं ही एक मात्र मोहरा था जो हर जगह फिट बिठा दिया जाता था! तब उस दौर में कोई भी अपनी बेटियों को लोक संगीत या ऐसे मंचों पर भेजने से कतराता था! उस दौर में शायद यह सामाजिक जागरूकता की कमी थी! यहाँ जब मुझे वही व्यक्ति दिखा जो उस दिन मेसमौर में तबला बजा रहा था तब मैंने अपने झंकार क्लब के साथी प्रो. सम्पूर्ण रावत व अरुण सुन्द्रियाल से कहा – जिसकी तबले की तारीफ़ मैं कर रहा था वो देखो वह है वह व्यक्ति! मेरे इशारे को उस व्यक्ति ने भी देख लिया था और मुझे पूछा- क्या बात, आप कुछ समझाने की कोशिश कर रहे हैं किसी को? मैंने झिझकते हुए वह वाकिया क्या सुनाया कि पहचान बढ़ी और पता लगा इस व्यक्ति का नाम नरेंद्र सिंह नेगी है!
उस दौर में जहाँ अरुण सुंदरियाल लैंसडाउन में झंकार क्लब से जुड़े थे वहीँ वह लखनऊ से लॉ भी कर रहे थे उनके साथ लैंसडाउन के ही डॉ. एसपी नैथानी तब वहीँ से एमबीबीएस कर रहे थे व इन्होने लखनऊ में बुरांस नामक एक संस्था खोली हुई था! फिर दौर आया लैंसडाउन का और रोज अरुण सुन्द्रियाल के घर तबले के बोल गूंजने लगे! इन बोलों में जब नरेंद्र सिंह नेगी की सुर-लहरी गूंजी तो यकीन मानिए उस दौर में स्कूल की छात्राएं उनकी इतनी दीवानी होती थी कि क्या कहने लेकिन तब भी वे उतने ही मजबूत थे जितने आज हैं!
दरअसल यह बिषय आया ही तब, जब मैंने ही इसे छेड़ा! अब इसे मेरा स्वार्थ समझिये या हठधर्मिता! मेरी कोशिश रहती है कि जब ऐसे शख्सियत आपके आगे हों तो क्यों न उनसे ऐसी बातें बाहर निकाली जाएँ जो बेहद अनछुई अनकही हों! यहाँ भी मैंने कुछ ऐसी ही शरारत की और बातों बातों में डॉ. सतीश कालेश्वरी से यह कह भी दिया कि- लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की आवाज की दीवानी आज भी जाने कितनी महिलायें हैं जब वे युवावस्था में रहे होंगे तब तो कहर ही ढाते होंगे लेकिन वे अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटके यही कारण है कि उनके समकक्ष के कई बड़े नाम विवादों में आये लेकिन उन पर अंगुली नहीं उठी? इस पर चन्द्रमोहन ज्योति ठेठ अपनी चिरपरिचित गढ़वाली में बोले- सचे भारे, भैजी का बारम कबि इन बात नि व्हे!
कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई! अब कहानी यहाँ से शुरू होती है कि नेगी जी की आवाज की दीवानगी उन दिनों लैंसडाउन जहरीखाल कालेज तक पहुँच गयी थी जहाँ मंच में मैं महिला का अभिनय करता था अब आये दिन हमारे क्लब से जुड़ने को कई लडकियां तैयार हुई और आखिर इसी साल यानि 1976 में हिमानी कला संगम कोटद्वार की टीम से राम रतन काला, घनानन्द व झंकार लैंसडाउन से हमारी टीम में अरुण सुन्द्रियाल, नरेंद्र सिंह नेगी, प्रो. सम्पूर्ण रावत, डॉ. एस.पी नैथानी सहित 18 स्कूल कालेज की छात्राओं का एक बड़ा जत्था लखनऊ आकाशवाणी जा पहुंचा जहाँ हमने कार्यक्रम दिए और हमारा चयन भी हुआ जिसमें अनीता कंडारी तब हमारी एक मात्र महिला गायिका हुआ करती थी जिन्होंने “मेरी बेटुली..मेरी लाड़ी लठ्याली” गीत की दो लाइन गायी हैं शायद यह कोई नहीं जानता और वे पंक्तियाँ हैं- बाबा जी, हे मांजी!
अनिता कंडारी दरअसल तब टी सीरीज में लोकगायक नेगी जी के साथ “क्या दिन क्या रात…!” गीत गाने गयी थी लेकिन जाने क्या हुआ वे मीटर से उतर गयी व तब अनुराधा निराला ने यह गीत गया! डॉ. कालेश्वरी बताते हैं कि जब लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का विवाह श्रीमती उषा से हुआ तब मानों उनकी किस्मत ही बदल गयी और उनकी संगीत साधना ने खिलकर खुलकर अपना विराट स्वरूप बिखेरना शुरू कर दिया! तब से लेकर अब तक निरंतर वे इस सफर को जारी रखें हैं ! मुझे ख़ुशी है कि इतने बड़े हस्ताक्षर ने सन 1992 में अपनी ऑडियो कैसेट ” बरखा” में मेंरे एक गीत को अपना मधुर कंठ देकर उसे आत्मसात कर ऐसा अमृत दिया कि वह चिरायु हो गया ! गीत के बोल हैं- “क्या दिन क्या रात…हे जी हो! कैन नि बींगी कैन नि जाणी मेरा मनै की बात!”

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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