क्या इतना सरल होता है किसी को भी लोकगीत या लोकगायक कहना!
(मनोज इष्टवाल)
तब आत्मग्लानि होती है जब विभिन्न मंचों में मंच संचालक, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में मीडिया के होनहार व सोशल साईट पर हर चौथा बुद्धिजीवी किसी भी गायक कलाकार को लोकगायक कहकर संबोधित कर देता है! और तो और कई बार तो वह उसी की रचना को लोकगीत का संबोधन दे देता है! यह आश्चर्यजनक सच है कि हम लोकगायक या लोकगीत की परिभाषा को आजतक समझ नहीं पाए हैं! एक लोकगीत को अगर आप अपनी धुन अपने शब्दों में तरोड़-मरोड़कर पेश करते हैं तो न सिर्फ वह लोकगीत बल्कि उसकी आत्मा भी मर जाती है! ऐसे कई गायक हमारे सदियों पुराने लोकगीतों, जागरों की मूल धुनों और शब्दों से छेड़छाड़ करके उन्हें सुपरहिट कर तो गए हैं लेकिन वे लोकगीत गायक हुए यह लोकगीतों के साथ अन्याय व अत्याचार से कम नहीं है!
जहाँ लोकसाहित्य की परम्परा अत्यंत प्राचीन है वहीँ लोकगीतों की परम्परा भी उसी पुरातनकाल से वर्तमान तक चली आ रही है! मूलतः बड़े बड़े साहित्यकारों का मानना है एक सदी के ज्यादात्तर गीत अगली सदी में अगर जीवित रहे तो वे लोकगीत कहलाये जाते हैं! जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में एक जगह लोक के बारे में लिखा गया है कि-
“बहू ब्याहितो वा अयं बहुशो लोक:! कएतद अस्य पुनरीह्तो आयत!! अर्थात यह लोक अनेक प्रकार से फैला हुआ है, प्रत्येक वस्तु में यह प्रधान है! कौन प्रयत्न करके इसे पूरी तरह जान सकता है? जब लोक को समझने में ही कई पीढियां गुजर गयी और लोकसमाज हर पुरातन काल से लेकर वर्तमानकाल तक सभ्यता की ओडनी ओड़ता आगे बढ़ता रहा है फिर क्या लोक, क्या लोकगीत और क्या लोकनृत्य..! सभी को परिभाषित करना बेहद कठिन है क्योंकि जो लोकगीत आप सामूहिक स्वरों में ग्रामीण कंठों से बिना धुन कम्पोज के सुनते हो वही लोकगीत जब रिकॉर्ड होकर या मंच में गाया जाता है तो उसमें कई परिवर्तन देखने को मिलते हैं! उसी लोकगीत में थिरकते कदम गाँव में कुछ और मंच पर कुछ और और फिल्मी ग्लैमर के साथ कुछ और हो जाते हैं ! ऐसे में लोकगायक और लोकगीत की मूलभूत परिभाषा ही बदल जाती है! यह सत्य है कि आज से 30 बर्ष पूर्व तक के ज्यादात्तर लोकगायक या संगीतकार लोकगीतों के मूल रूप से छेड़छाड़ नहीं करते थे लेकिन अब निरंतर इसके स्वरूप को बदलने वाले गीत कम्पोजर, धुन कम्पोजर या गायक इसकी आत्मा में शूल चुभोकर उसकी खूबसूरती बयाँ तो कर रहे न लेकिन अपने शब्दों में ! वह क्योंकि लोक की मुख्य धारा से बहकर आया है इसलिए लोग उसे लोकगीत ही मानते हैं और साथ ही उस गायक को भी लोकगायक कहना शुरू करते हैं जिसने उस गीत का कोल्ड ब्लडेड मर्डर किया है!
बहरहाल लोकगीत की जो परिभाषा दी जाती रही है वह यह है कि “लोकगीत अनादिकाल से ही एक कंठ से दूसरे कंठ में उतरते हुए सुरक्षित रह पाए हैं! मौखिक रूप से चली आ रही यह लोकसमाज, लोक साहित्य की बेहद मनोरम परम्परा है!” लेकिन उत्तराखंड के परिवेश में अब न वे अनपढ़ समाज की दिमागी फ्लोपी ही रही जो कंठ की भाषा अंठ में रटकर उसे मौखिक याद कर लेते थे और न उन लोकगीतों को जीवित रखने वाले ऐसे सल्ली लोककलाकार ही! फिर भी कुछ प्रयास लगातार होते आ रहे हैं लेकिन हमारी संस्कृति या लोक संस्कृति की इस मूल्यवान धरोहर को विभागीय उदासीनता से ठेठ विजुलाइजेशन नहीं किया जा पा रहा है ताकि इसका अमरत्व पीढ़ीदर पीढ़ी जिन्दा रह सके!
अगर लोकगीतों की यहाँ बात की जाय तो पूरे उत्तराखंड में कुछ ही ऐसे लोकगायक लोकगायिका स्मरण होती हैं जिन्होंने ठेठ लोक को जिया लोक को गाया और लोक को जिन्दा रखा है! ऐसे लोकगीतों की विधा में गढ़वाली में मांगल, जागर, थडिया, चौंफला, बाजूबंद, झुमेलो, ढक्के सौं, छोपत्ती, फ़ाग, खुदेड़, चैती, राधाखंडी, बारामासी, चौमासी, स्वांग, सरैs,पंडो, ऋतुरैण इत्यादि सहित दर्जनों विधाएं हैं वहीँ जनजातीय समाज जौनसारी में मांगड, छोड़े, भारत, जंगू, बाजू, भाभी, गोर्खी,झौड़े, सेलोंग, ठुंडू, बेणी, तांदी, हारुल, झैंता, रासो, बाजूबंद, पूज, पौणाई, मात्रिया, धुमसू, मंडावणा, धीई, हदिया, हरिण, इत्यादि थारु जनजाति में सादा, थैईपया, नबदों, ख्याल, साखी, चौकी, पैज, मलहोनी, रोटीगीत, हन्ना, झीं-झीं, स्वांग, डोरा, होली, ढोल,आला, द्यूडा रं भोटिया (शौका) जनजाति में धनकी धैंताला, सौवनु बैरा, छिरा बैरा, बाज्यू बैरा, झुमको बैरा, कौतिक्या बैरा, छपेली, डंडयाल, दुन्याला, चौंफुला, डस्का, चांचरी, झौड़े, गोंड जनजाति में लिंगो पाटा, पेन पाटा, कोला पाटा, हुलकी पाटा, घनकुल गीत, बोक्सा जनजाति में हल्दी गीत, मांगलगीत, भात गीत, दारवारगीत, नामकरण गीत, छटी के गीत, होली (रसिया, सुमरा, कादरी, रामकली, स्वांग ),सावन गीत (बारामासी, मल्हार, झूला, रसोता,) कृषि रसोता, सांग, शराबिम कर्मी जोगन, पहेड़ी इत्यादि जबकि कुमाउनी समाज में मांगल, जागर, फाग,न्योली, छपेली, बाजूबंद, सहित दर्जनों ऐसी लोकगीत विधाएं शामिल हैं!
देखा जाय तो पूरे उत्तराखंड के परिवेश में सिर्फ लोकसमाज के लोकगीतों के प्रकार सैकड़ों में हैं! ऐसे में अगर कोई अपने आपको स्वघोषित लोककलाकार, लोकगायक कहलाता है तो यकीनन उसे अपने समाज में समाहित ऐसी हर विधा के लोकगीतों का मर्म जानते हुए हर हमेशा अग्नि परीक्षा के लिए तैयार रहना होगा!
(“उत्तराखंड के संस्कार गीतों में लोक” अप्रकाशित पुस्तक के अंश लेखक-मनोज इष्टवाल )