(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 22 फरवरी 2017)
दो दिन से भूगर्भ वैज्ञानिक उत्तराखंड में भूकम्प आने की बात कर रहे थे। कल कुमाऊ और गढ़वाल मंडल में बेमौसमी बरसात में खूब ओले भी पड़े लेकिन भूकम्प व तूफानी हवाएं जिनकी आशंका थी वह नहीं आई! क्या कहीं हमारे पहाड़ के उस वैज्ञानिक ने यह सब अनिष्ट तो नहीं रोका जिसे हमारा समाज डळया नाम से पुकारता था। जाने डळया नाम किसने दिया होगा मुझे लगता है जब वह एक पेड़ से दुसरे पेड़ में रस्सी के सहारे जाता था जिसे डाळई-पाखा कहते थे ने ही उसे यह नाम न दिया हो।
डळया सब एक ऐसी निर्भीक कौम हुआ करती थी जिसका तमाशा तो सब देखते थे लेकिन उसके पेट का गुजर बड़ी मुश्किल से चलता था। यह कौम अक्सर थोकदारों के रहमो-करम पर पलती थी। वे भी इन्हें अपने गॉव में अक्सर इसलिए ही रखा करते थे कि अतिवृष्टि के समय ये उनके काम आ जाएँ।
डळया लोगों के पास रहने के लिए आवास तो होता था लेकिन खेत खलिहान से कालांतर में ये लोग वंचित रहे। जिस खेत खलिहान माटी से वे वंचित रहे उसी खेत खलिहान प्रकृति की कुशलता के लिए यह कौम अपनी जान दांव पर लगा दिया करती है। पूर्व में अक्सर ज्यादा ओलावृष्टि, कई दिनों की लगातार बारिस या बर्फ़वारी से जब ग्रामीण जीवन ठप्प हो जाता था ऐसे में सभी लोग खेत खलिहान, मकान, पशु व खुद की जान-माल की सुरक्षा के लिए डळया समाज के पास जाते थे तब प्रकृति का यह सबसे बड़ा वैज्ञानिक अपनी तंत्र-मंत्र, यंत्र शक्ति से यह सब रोककर बड़े से बड़ा अनिष्ट टाल देता था! डळया समाज का कोई भी एक ब्यक्ति एक खतरनाक ढाल-पटठार से एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर रस्सी बांधता था, उस रस्सी पर बदन में एक गमछा लपेटकर चलता था और चाक़ू से अपनी बीच की अंगुली काटकर खून टपकाता हुआ – देश प्रदेश की सुरक्षा के लिए मन्नतें माँगता हुआ अंत में खंड बाजे शब्द कहता हुआ रस्सी के एक छोर से दूसरे छोर तक चलकर या पेट के बल रेंगकर बढ़ता था। कई बार ऐसा करने में डळया की रस्सी से गिर जाने से मौत हो जाया करती थी। अपनी जान जोखिम में डालकर देश प्रदेश व क्षेत्र की खुशहाली की मन्नत मांगने वाले इस वीर समाज को हमने न्यायोचित सम्मान कालांतर में दिया कि नहीं यह कालांतर के ही गर्भ में है लेकिन इनकी पत्नियां अक्सर बेबा हुआ करती थी जिन्हें बेहद मुसीबतों का सामना करना पड़ता था। बाकी समाज अतिवृष्टि से जहाँ यह सोचकर शुकून से जीता था कि डळया हैं तो..। वहीँ इस समाज को एक -एक रात कितनी कष्टदायी रहती रही होगी यह वही जानता रहा होगा।
डळया समाज का ही एक और भाग बादी समाज भी रहा जो लांघ खेलकर संसार के शुकून की कामना करता था और जहाँ भी जिस क्षेत्र में भी वह लांघ खेलता था उस क्षेत्र की रिधि-सिधि के लिए मनोकामना। लांघ एक बांस के कई मीटर लम्बे डंडे में चढ़कर खेली जाती थी। उसके शीर्ष तक चढ़कर बादी समाज पेट के बल लेटकर उसमें चरखी सा घूमता हुआ वही खंड बाजे वाले शब्दों की आवृति करता खुशहाली की मनोकामना करता है। अब यह बादी समाज भी अपने अंतिम चरण में है। डळया समाज की तरह यह समाज भी भीड़ में कहीं खो गया है. पौड़ी गढ़वाल के खिर्सू क्षेत्र में काठ का बद्दी रडाने (खिसकाने) की आज भी परंपरा है।
डळया समाज डाळई-पाखा से पहले अतिवृष्टि रोकने के लिए उल्टा तव्वा, या खडी कुल्हाड़ी करके भी अतिवृष्टि रोक दिया करते थे। हां… तव्वा या खड़ी कुल्हाड़ी को अतिवृष्टि रोकने के बाद इतनी सावधानी से उठाना पड़ता था कि उसकी आवाज न हो। अगर उस से आवाज हुई तो कोई न कोई अनिष्ट का संकेत होता था।
भूकम्प की तबाही हर शताब्दी में होती रही है लेकिन कई शताब्दियों तक इस डळया समाज के कारण ऐसी तबाहियां रुकी हैं जिस से खेत खलिहान व पैदावार भी खूब हुई। अब जबकि हम वैज्ञानिक दुनिया के महत्वपूर्ण प्राणी हैं तब भी हमें यह पता नहीं कि जलजला कब आयेगा और क्या तबाही मचाएगा. हमारा यह डळया वैज्ञानिक हमें हर जलजले के आने से पहले ही सावधान कर देता था और आने वाले अनिष्ट को काटने के लिए खुद की जान जोखिम में डाल देता था।धन्य है हम देवभूमि के वासी जिनके समाज में वह सब रचा- बसा था जो प्रकृति प्रदत्त था।