Friday, November 22, 2024
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और यों जीवंत हुआ बद्दी समाज..! अभिव्यक्ति कार्यशाला ने फिर कुरेदे अनूठे जख्म..!

और यों जीवंत हुआ बद्दी समाज..! अभिव्यक्ति कार्यशाला ने फिर कुरेदे अनूठे जख्म..!
(मनोज इष्टवाल)
वो आज भी उपेक्षित हैं वे आज भी शोषित हैं लेकिन जब अपने पर आयें तो क्या बच्चे क्या बूढ़े! गले से जो सुर निकले तो मानों आदिदेव महादेव की लट से बहती गंगा की वह धार हो जो अपने मायके में निर्झर बहती पूरे भारत बर्ष की धूल-माटी में मिली गंद बास को अपने में समेटे गंगा सागर में समा जाती है! यही तो यह समाज भी गंगा के मायके में करता आ रहा है! निरंतर अनवरत…! लेकिन उपेक्षाओं की उच्छासें भरते-भरते आखिर कब तक अपनी दिनचर्या के साथ गरीबी का रोना रोते रहते! एक दिन वह भी आया जब इन्होने शिब डमरू के प्रारूप के रूप में रखी ढोलक व पैरों में खनकते घुंघुरुओं को खूँटी में टांगकर उस मंत्र या शिब आदेश की इतिश्री कर दी जो सामवेद में वर्णित है!


सामवेद में शिब ने आदेशित करते हुए बद्दी/बादी/बेड़ा/ध्याड समाज को कहा था- “भूतानि आचक्ष्व,भूतेषु इमं यजमान अर्ध्वयू” जबकि बिष्णु व शिब पुराण में इनके बारे में लिखा गया है कि जो जन्म से ही गाते-बजाते पैदा हुए हों वही गंदर्भ हैं!


बहरहाल बद्दी समाज पर दर्जनों लेख पूर्व में भी लिखे जा चुके हैं लेकिन सरकारी उपेक्षा के चलते आज स्थिति अह आ गयी है कि बादी समाज का एक भी व्यक्ति यह कहने भर से चिढ जाता है कि वह बद्दी गीत या नृत्य के बारे में कितना जानता है! उसके पीछे भी हमारा ही समाज है जिसने इन कलावन्तों की कला को सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन का साधन समझा और कुछ नहीं! अभिव्यक्ति कार्यशाला द्वारा ओएनजीसी के सौजन्य से कल्चलर हेरिटेज के रूप में बद्दी समाज पर वृहद् कार्य करने की पहल की गयी! इस सम्बन्ध में रंगकर्मी निदेशक मनोज चंदोला व वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी ने गढ़वाल के बहुत से गाँवों का भ्रमण कर बद्दी समाज पर एक वृत्तचित्र का निर्माण कर इस समाज की पैरवी के अवसर खोले लेकिन यह प्रयास अभी भी नाकाफी हैं क्योंकि इस समाज की विधाएं यकीनन अभी भी ढंग से लाई नहीं जा सकीं हैं और यदि दो चार साल बाद इस समाज की उन विधाओं पर हम शोध करने का यत्न भी करेंगे तब तब न वे कलावंत ज़िंदा रहेंगे जो इस कला के पारखी कलाकार थे और जिन्होंने यह जीवन जीया है! और न ही वह कला ही जिन्दा रह पाएगी क्योंकि ये सभी 60 बर्ष की उम्र पूरी कर चुके हैं! और इनके बच्चों ने इस कला को सिरे से इसलिए नकार दिया है क्योंकि उन्हें हमारे समाज ने न तो न्यायोचित्त सम्मान देने की कोशिश की और न ही सरकार ने उनकी किसी पीड़ा को समझा है! इसलिए इस समाज ने भी बाजगी ढोली समाज की भांति जीवन यापन के लिए होटल में बर्तन मांझकर परिवार का भरण पोषण कर अपने बच्चों को इस काबिल बनाने का प्रयास शुरू कर दिया है ताकि वे समाज के साथ फक्र से खड़े होकर सम्मान की जिन्दगी जी सकें!


अभिब्यक्ति की टीम द्वारा गढ़वाल मंडल के पौड़ी जनपद के नैथाना, कोटगी, तल्ली काण्डई, तमलाग टिहरी के डांगचौरा, दूणी रूद्रप्रयाग के सुमाडी तिलवाड़ा, सिस्सों इत्यादि गाँवों का भ्रमण कर बद्दी जाति पर एक ब्यापक दस्तावेज तैयार करने का प्रयत्न किया गया! अभिव्यक्ति द्वारा उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के टाउन हाल में “लोक के रंग, बादी गीतों के संग” नामक कार्यक्रम में इन्हें एक मंच दिया गया जहाँ इस समाज के लोगों ने अपने समाज की उपेक्षा का दर्द बयां करते हुए कहा कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद सरकार ने तो हमारी तरफ मुंह फेरा ही फेरा समाज ने भी फेर दिया है! पौड़ी से आये कलावंत रामभक्ति कहते हैं कि उन्होंने अब तक 22 बार लांघ खेली है जो हमेशा यजमानों की कृषि खुशहाली के लिए जीवन दांव पर लगाकर खेला गया खेला है ताकि उनके खेतों में खड़ी फसल को जंगली जानवरों, चूहों और पक्षियों से सुरक्षित रख सके व उनके अन्न के कोठार भर सकें! वहीँ उनकी पत्नी कहती है कि आज स्थिति यह आ गयी है कि किसी गाँव में मांगने जाओ भी तो अक्सर महिलायें कहती हैं अच्छी खासी मोटी ताज़ी तो हो फिर कोई काम क्यों नहीं करती ! उन्हें कौन समझाए कि यह पेशा हम अपनी ख़ुशी से कम शिब के आदेश से ज्यादा करते हैं! वहीँ नैथाना से आई सबसे वयोवृद्ध बादीण थुन्नी बद्दी की श्रीमती कहती हैं कि सरकार हमें भी संस्कृति विभाग के माध्यम से वैसा ही मंच दे जैसा तथाकथित कलाकारों को दे रही है ताकि हम भी समूह बनाकर अपनी सामाजिक प्रथा को जीवंत बनाए रख सकें व बदले में हमारी पीढ़ियों का भी गुजर बसर हो सके! लेकिन अब हमारी किसको जरूरत आन पड़ी जो हमारा काम था उसे अब खुद बड़े समाज की महिलायें अपने जाज-कारीजों में नाच गाकर पूरा कर रहे हैं!


यकीनन उनकी पीडाओं में बहती गंगा का वह बिशाक्त था जो हर काल हर युग में सवर्ण समाज की उपेक्षाओं के हर बिम्ब को दर्शाता नजर आ रहा था जो हम युग हर काल में उन्हें दिखने झेलने को मिला है!
शायद यही कारण भी रहा कि अभिव्यक्ति कार्यशाला द्वारा तैयार किये गए वृत्तचित्र के विजुअलाइजेशन से वह लोक लगभग गायब सा मिला जिसमें राधाखंडी, सैदेई, औसर, पैन्सारा, पंडवाणी, स्वांग, लांघ, बेडावृत, कठबद्दी इत्यादि शामिल था! सिर्फ दो जगह ऐसा लगा जहां राधाखंडी गायन के पुट दिखाई दिए! टिहरी के दूणी गाँव में इस समाज के लोगों में आज भी अपने पेशे को ज़िंदा रखने का जूनून नजर आया वहीँ ब्रिजलाल, डॉ. प्रकाश चन्द सहित इस समाज के कुछ लोगों ने इसे आगे बढाने के लिए कमर कस ली है ! वृत्तचित्र में 74 बर्षीय शिवचरण व बचनदेई ने राधाखंडी लोकगायन का एक पुराना मुखड़ा सुनाकर यकीनन इस प्रथा को जीवित करने का यत्न तो किया है बाकी नवसीखिए समाज के पास न ही वे बोल बचे हैं न कला को जीवंत बनाने वाले कलावंत! जौनसार बावर के संस्कृति कर्मी नंदलाल भारती ने जरुर ध्याड़ परम्परा में वर्णित “बिर्सू” गायन व नृत्य की प्रस्तुती देकर दर्शकों को सम्मोहित किया अपितु मुझे कुकरसी देवता गबेला गाँव की वह रात भी याद दिला दी जहाँ सारी रात उसके गायन नृत्य में यह समाज अपने को धनी समझता है!

अभिव्यक्ति कार्यशाला में शामिल होने पौड़ी से रामभक्ति व उनकी पत्नी, नैथाना से थुन्नी बद्दी के पुत्र रामचरण व मनोज बादल, व थुन्नी बद्दी की वयोवृद्ध पत्नी, पैडूलस्यूं काण्डई तल्ली से नरेश लाल, तमलाग से रमेश, डांगचौरा मलेथा से तुंगीराम (कविराज), श्रीमती ईश्वरभक्ति, प्रेमलाल सुनीता, मुकेश, मकानलाल, बृजलाल, रुद्रप्रयाग सुमाडी से श्रीमती दर्शनी देवी, सिस्सों से रामभक्ति, दूणी से बिमला देवी भागीरथी शिवचरण इत्यादि प्रमुख थे ! यकीनन यह एक भागीरथ प्रयास इस टीम द्वारा किया गया कि इन लोगों को एक मंच पर लाने का यत्न किया गया लेकिन इन कलावन्तों के पास न अब समसामयिक गीतों का भंडार है और न प्रेमालाप के पुटों के औषधीय सुर! और तो और इनके मूल में गूंजती वह ढोलक की घुर्र में हाँ भै हाँ ..शब्द संयोजन की कमी में खलती विधा के राधाखंडी, सैदेई, औसर और पैन्सरा पंडवाणी भी लुप्त प्राय: नजर आई जिन्हें सुनने का सचमुच बड़ा मन था! उम्मीद है हम सब मनोज चंदोला, चारु तिवारी, हंसा अमोला व टीम के अन्य सदस्यों के इस प्रयास की सराहना करते हुए हम सभी इस समाज के अग्रजों के लिए एक ऐसी कार्यशाला में न्यौता दें जहाँ संगीत के मर्मज्ञ वीरेन्द्र नेगी, सुभाष पांडे, संतोष खेतवाल, राजेन्द्र चौहान सहित इस विधा के विभिन्न जानकार मौजूद हों और इन गीतों के लिपिबद्ध करने में ढोलक की उन थापों का विजुअलाइजेशन कर सकें जो विधा अभी  गुमनामी के अंधेरों में समा रही है! मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए प्रदेश के उच्च शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. धन सिंह रावत को जरुर इस मर्म को समझना होगा ताकि इस समाज की उखड्ती साँसों को आक्सीजन मिल सके!  सचमुच अभिव्यक्ति कार्यशाला के दिग्गजों ने एक ऐसा प्रयास करके दिखा दिया कि मरते समाज को किस तरह ऑक्सीजन दी जाती है! काश …कि बद्दी समाज द्वारा बनाए गये कठबद्दी के उन सम्मानों को सम्मानित अतिथि ध्यान में रखें जो उनके सम्मान में उन्हें दिए गए थे ।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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