(वरिष्ठ पत्रकार गुनानन्द जखमोला की कलम से)
● लोकगायक राणा ने जीवन फाका-परस्ती में जिया, अपने गम छिपाए, दूसरों के बताए।
● अरविंद केजरीवाल ने छल किया तो भाजपाइयों ने सल्ट में जमीन कब्जा ली।
कल उत्तराखंड के लोककलाकार अपने हुडका लेकर अल्मोड़ा की सड़कों पर उतरे। उनको सरकार ने एक-एक हजार रुपये की असम्मान राशि देने की घोषणा की है। यह दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि हम अपने लोककलाकारों को इस एक हजार रुपये की राशि को ही सम्मान समझ रहे हैं और सरकार बार-बार इस राशि का गुणगान कर उनके सम्मान को और आहत कर रही है। उत्तराखंड के लोक कलाकारों की यह बदहाली कोई नई बात नहीं है। बचनी देवी हो या कबूतरी देवी। अधिकांश लोककलाकारों ने जीवन की सांध्यबेला संघर्ष और दुख मे ंही बितायी। हमारे उत्तराखंड की आन-बान और शान हीरा सिंह राणा भी इसके अपवाद नहीं रहे। जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं तो मेरी आंखों के कोर नम हैं, इसलिए नहीं कि मैं हीरा सिंह राणा के निधन से आहत हूं, यह इसलिए कि हम हीरा जैसे हीरे की परख ही नहीं कर सके। न जीते जी और न मरने के बाद।
देश की राजधानी दिल्ली में गढ़वाली-कुमाउंनी-जौनसारी भाषा अकादमी के उपाध्यक्ष रहे हीरा सिंह राणा के पद पर मत जाईये। उन्हें दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने पहाड़ी वोट हासिल करने के लिए राणा जी को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया। अकादमी को न बजट दिया न राणा जी को सुविधाएं। मानदेय भी नहीं। बस, हम इतराते रहे केजरीवाल की इस मक्कारी पर, और उसने हमें इस्तेमाल कर लिया। अरविंद केजरीवाल की इस मामले में जितनी भी निंदा की जाएं, उतनी कम है। राणा जी के निधन के बाद न तो केजरीवाल ने दुख जताया न परिजनों की सुध ली। मनीष सिसोदिया राणा जी के घर से फलांग भर दूरी पर रहते हैं, लेकिन उन्होंने भी न फोन, न ट्वीट और न ही कोई संवेदना जतायी।
लोकगायक हीरा सिंह राणा का जीवन फाकापरस्ती में बीता। उन्होंने पहाड़ के लोगों के दर्द को अपने गीतों में उकेरा। वो जीवन भर पहाड़ की पीड़ा, संस्कृति, लोकपरम्पराएं और विकास की बात गीतों के माध्यम से विभिन्न मंचों पर उठाते रहे। राज्य आंदोलन के दौरान वो स्वयं जंतर-मंतर पर भी दिल्ली वासियों को अलग राज्य के लिए लामबंद करने में मददगार रहे। स्वाभिमानी राणा जी ने कभी किसी से मदद नहीं ली। तत्कालीन सांसद केसी बाबा ने उन्हें उपकृत करना चाहा तो भी मदद नहीं ली। हां, इतना जरूर है कि उद्यमी टम्टा जी ने उन्हें पश्चिमी विनोद नगर में सिर छिपाने के लिए एक छोटा सा घर दे दिया। आर्थिक रूप से हीरा सिंह राणा जी की इतनी ही उपलब्धि है।
इस लोकगायक की पीड़ा की थाह कोई पा ही नहीं सका। जवान बेटी उचित इलाज के अभाव में इस नश्वर संसार से विदा हो गयी। तो बेटा आज भी नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है। बेटा बेरोजगार है। केजरीवाल सरकार से इतना भी नहीं हुआ कि उनके बेटे हिमांशु को संविदा पर ही नौकरी दे देते। लेकिन केजरीवाल को तो दिल्ली में उत्तराखंड के लोगों के वोट चाहिए थे। इतना ही मतलब था राणा जी से।
अब बात उत्तराखंड की। सल्ट के मानिला डिढोली को पूरे देश में जाना-जाता है, क्योंकि यहां हीरा सिंह राणा ने जन्म लिया। लेकिन यहां के लोगों बदले में राणा जी को क्या दिया। भाजपा के नेताओं ने उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया। इस जमीन की लड़ाई अब कोर्ट में है। यहां की सरकारों ने इस पर संज्ञान नहीं लिया। हीरा सिंह राणा के निधन पर अपने त्रिवेंद्र चचा ने एक प्रेस नोट जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, जैसा कि हर लोककलाकार के साथ होता है।
अब हीरा सिंह राणा की पत्नी विमला राणा के जीवन में चारों ओर अंधेरा है। दिल्ली जैसे महानगर में जीवन जीने के लिए कितना संघर्ष करना होगा? न पति का साया रहा न बेटे की नौकरी। जीवन कैसे चलेगा? गुजर-बसर कैसे होगी? कोई तो बता दो। आखिर हमारी सरकारें लोक कलाकारों की इतनी बेकद्री क्यों करती हैं? मैं तो इतना ही कहूंगा कि राणा जी, दोबारा इस देश में जन्म मत लेना, क्योंकि यहां आप जैसे सहृदयी, स्वाभिमानी और संवेदनशील लोगों की कद्र ही नहीं। विनम्र श्रद्धांजलि।