नई दिल्ली (हि. डिस्कवर)
अपनी रचनाधर्मिता में पहाड़ की पीड़ा को कुछ इस तरह उकेरने वाले “त्यर पहाड़, म्यर पहाड़, होय दुखों का डयर पहाड़। बुजुर्गों ले जोड़ पहाड़, राजनीति ने तोड़ पहाड़। ठेकेदारों ने फोड़ पहाड़, नातिनों ने छोड़ पहाड़” उत्तराखंड के लोकगायक, उत्तराखंड भाषा अकादमी दिल्ली के उपाध्यक्ष हीरा सिंह राणा का विगत रात 2.30 बजे विनोद नगर, दिल्ली स्थित उनके निवास पर हृदय गति रुकने से निधन हो गया, वेे 78 बर्ष के थे। उन्होंने कुमाऊंनी भाषा में अनेक गीत रचे और गाए. उनके जाने से उत्तराखंड संस्कृति व संगीत जगत को अपार हानि हुई है। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के निगम बोध घाट में उनका अंतिम संस्कार किया गया।
उत्तराखंडी लोक संस्कृति/ लोक संगीत के पुरोधा, सुप्रसिद्ध लोक कलाकार एवं गढ़वाली-कुमाऊँनी-जौनसारी भाषा अकादमी दिल्ली के पहले उपाध्यक्ष हीरा सिंह राणा जी अब हमारे बीच नहीं रहे।
ज्ञात हो कि महज 15 साल की उम्र से पहाड़ की संस्कृति से जुड़कर लोक गीतों की रचना करने वाले हीरा सिंह राणा का नाम उत्तराखंड के प्रथम पांत के लोकगायकों में शामिल है। लोगों के बीच वे हिरदा के नाम से प्रसिद्ध थे।उन्होंने रामलीला, पारंपरिक लोक उत्सव, वैवाहिक कार्यक्रम से अपने गायन का सफ़र शुरू किया और बाद में आकाशवाणी नजीबाबाद, दिल्ली, लखनऊ से भी लोकगीतों का सफर तय किया।
हिरदा ने अपने लिखे कुछ गीतों के माध्यम से अलग ही छाप छोड़ी। किसी मंच पर जब भी उन्हें बुलाया जाता था तब हिरदा से “हाय हाय रे मिजाता” गीत की फरमाइश न हो ऐसा भला कहाँ सम्भव है।
लोकगायक हीरा सिंह राणा का जन्म 16 सितंबर 1942 को ग्राम मानिला-डंढ़ोली जिला अल्मोड़ा में हुआ उनकी माताजी स्व: नारंगी देवी, पिताजी स्व: मोहन सिंह थे। हिरदा ने अपनी प्राथमिक शिक्षा भी प्राथमिक विद्यालय मनीला से प्राप्त की।
तदोपरान्त रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने सेल्समैन के रूप में अपने भरण पोषण हेतु नौकरी प्रारम्भ की लेकिन इसमें उनका मन नहीं लगा और इस नौकरी को छोड़कर वह संगीत की स्कालरशिप लेकर कलकत्ता चले गए। कलकत्ता से लौटने के बाद हीरा सिंह राणा ने उत्तराखंड के कलाकारों का दल नवयुवक केंद्र ताड़ीखेत 1974, हिमांगन कला संगम दिल्ली 1992, पहले ज्योली बुरुंश (1971), मानिला डांडी 1985, मनख्यु पड़यौव में 1987, के साथ उत्तराखण्ड के लोक संगीत की यात्रा का समागम शुरू किया। उन्होंने अपनी रचनाये कम बल्कि लोक में रचे बसे गीतों को गाकर अपने आप को लोककलाकार कहलाना ज्यादा पसंद किया। उनके गीत व रचनायें उनकी गायन शैली के हिसाब से बेहद सहज लगती थी लेकिन जब वे शब्द दिल में उतरते थे तब पता चलता था कि उनके अन्तस् में पहाड़ कहाँ और कैसे बसता है। इनमें से जैसे- लस्का कमर बांधा, हिम्मत का साधा। फिरनी भोल उज्याला होली, कां होली राता।।, आ ली ली बकिरी, न्यौली पराणा, रँगीली बिंदी या फिर अपनी जन्मभूमि मानिला को समर्पित पंक्ति – यो मेरी मनीला ड़ानी, हम तेरी बलाई ल्यूंला। तू भगवती छई भवानी, हम तेरी बलाई ल्यूंला। इत्यादि प्रसिद्ध हैं।
हीरा सिंह राणा ने कुमाउनी लोक गीतों के 6- कैसेट ‘रंगीली बिंदी, रंगदार मुखड़ी’, सौमनो की चोरा, ढाई विसी बरस हाई कमाला’, ‘आहा रे ज़माना’ भी निकाले। जिंदगी के अंतिम पड़ाव में हीरा सिंह राणा को दिल्ली सरकार द्वारा गढ़वाली-कुमाऊँनी-जौनसारी भाषा अकादमी का उपाध्यक्ष मनोनीत किया।