भौतिकवाद और विलासिता भरे वर्तमान में जहाँ हम उत्तराखंडी अपने गॉव खेत खलिहान रीति-रिवाज सब छोड़-छाड़कर महानगरों में आ बसे हैं वहीँ विगत सदी से वर्तमान तक सिर्फ और सिर्फ अपनी सांस्कृतिक विरासत के विभिन्न रंगों को अपने लेखों, गीतों, रचनाओं और स्वरों में ढालकर कर्णप्रिय बनाकर हमें हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजग करता एक प्रहरी ऐसा भी है जिसका आजतक कोई तोड़ नहीं मिला! जी हाँ, गढ़ रत्न के नाम से प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने विगत सदी से लेकर वर्तमान तक बस एक ही लक्ष्य रखा है कि किस तरह तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में अपने सामाजिक मूल्यों, विरासत में मिली धरोहरों, लोकसंस्कृति की अनूठी मिशाल रहे लोक गीतों व लोक नृत्यों का संरक्षण व संवर्धन किया जा सके जिससे आने वाली पीढ़ी अपने इन अतुल्य बिषयों के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ इसे इतिहास का एक अध्याय समझने की गलती न करे!
एक ऐसी बेटी जिसने जिंदगी भोपाल में गुजारी हो. शैक्षिक योग्यता के सारे मानक पूरे किये हों रुपहले परदे से लेकर टीवी चैनल्स में उद्घोषिका रही हो. वह जब बहु बनकर अपने उत्तराखंड के एक ऐसे परिवार में आई हो जिसकी रग रग में लोक संस्कृति की आवोहवा घुली मिली हो तब वह बहु क्या करेगी यह सबसे बड़ा प्रश्न है? ऐसे प्रश्न का हल चुटकी बजकार हल करने वाली गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी की पुत्रवधु अंजली का जवाब नहीं! बर्ष 2017 में इंदिरापुरम में आयोजित महाकौथीग में अपनी सासू माँ श्रीमती उषा नेगी के साथ शिरकत करने पहुंची ! अंजलि ने ठेठ अपने परिधानों में गढ़-कल्यो (पहाड़ी व्यंजनों) के स्टाल में अपनी सासू का भरपूर हाथ बंटाया! अंजलि कहती है कि उसने जब गत्ति धोती, मुन्डासु, पटका, नथ, बुलाक/बिसार, गुलबन्द, पौंची इत्यादि पहनी तो वह अपने निखरे रूप को देखकर दंग रह गयी. ऐसा नहीं कि उसने यह पहले कभी न किया हो. वह कहती हैं मैंने अपनी शादी में भी यह सब पहना उस से पहले इस घर की बहु बनने के लिए क्या जरुरी है वह सब समझा! मैं गत्ती धोती पहले भी लगाती थी लेकिन उसकी गाँठ उल्टी मारती थी अब सासू जी ने सब सिखा दिया है!
अंजली कहती है कि गढ़-कल्यो का स्वाद तो लोग चख ही रहे थे लेकिन बुजुर्ग माँ यें मुझे दिल्ली जैसे शहर में आकर अचम्भे की तरह देखती हुई अपने अतीत को ताजा कर जहाँ आशीर्वाद दे रही थी वहीँ वर्तमान की बेटियाँ वाहू..जैसे शब्द मुंह से निकालकर बड़ी ललचाई नजर से मेरी भेषभूषा को निहार रही थी! अंजलि ने बताया कि एक सुसभ्य परिवार की बेटी ने तो अपनी माँ से वहीँ जिद करनी शुरू कर दी कि मैं अपनी शादी में बिलकुल इसी भेषभूषा को अपनाउंगी ताकि मैं नाज कर सकूं कि मैं पहाड़ की बेटी हूँ!
अपने पहनावे से बेहद उत्साहित अंजली कहती है कि मुझे सचमुच उस दिन लगा कि क्या मेरा रूप यौवन इस परिधान में इतना निखर गया है जो सारी माँ बहनें मुझे देखकर इस तरह की प्रशंसा कर रही हैं! जाने कितनी बार पहली बार मैंने शीशे में अपने आप को अपनी पारंपरिक पोशाक व गहनों में आत्ममुग्ध होते देख है! वह बताती हैं कि उनकी फूफू जी की हाल ही में कोटद्वार में शादी हुई तब उन्होंने भी अपने ठेठ पहाड़ी परिधानों को ही इस सब के लिए चुना! अपने पति कविलास नेगी के गीत “मुझको पाड़ी मत बोलो में देहरादून वाला हूँ” पर सोशल साईट में चर्चा के बाद वरण करने वाली अंजलि आत्ममुग्ध है कि जाने किन गुणों के कारण वह एक ऐसे परिवार की बहु बनी जहाँ सब कुछ बेहद अनुशासित ढंग से सुसंस्कृति के तौर पर अपनाया जाता है! वे अपनी सासू जी को अपनी सहेली से कम नहीं मानती जो उन्हें पकवानों की एक एक टिप्स बहुत सलीखे से देती हैं यही कारण भी है कि अंजलि आज पल्यो, छछिंडा, उग्रा, बाड़ी, झंग्वरा, थैंच्वाणी, चैंसा, फाणु, पटुडी सहित दर्जनों पकवान बनाना सीख गयी हैं जो उनके मुंह में भी रच बस गए हैं!
श्रीमती उषा नेगी कहती हैं कि 35 बर्ष पूर्व जब वह अपना मायका छोड़कर नेगी जी की अर्धांग्नी बनकर इस घर में आई थी तब उनकी सोच भी नहीं थी कि एक दिन उनके नाम के पीछे अपना नाम जोड़कर मैं चलूँ शायद नेगी जी भी नहीं चाहते थे कि मैं सिर्फ श्रीमती नेगी ही कहलाऊं. उन्होंने मुझे कहा कि तुम में क्षमता है कि तुम अपने आप भी उषा नेगी बनकर समाज के समक्ष अपनी साख बना सकती हो लेकिन कैसे यह तुम्हे सोचना है. तब से मैं इसी उधेड़बुन पर लगी रही कि किस तरह कुछ ऐसा करूँ कि सिर्फ नेगी जी के सांस्कृतिक मंचों में परिचय के अलावा भी मेरा कुछ अपना हो. आखिर 1998 में मुझे अपने आपको समाज के आगे साबित करने का समय मिला जब मैंने गढ़-कल्यो के रूप में गढ़वाल महोत्सव में अपनी स्टाल लगाईं. तब मैं अपने गॉव परिवार के ही एक जेठ जी जोकि अफसर पद पर है उन्हें अरसे की ताक़/पाक लगाने के लिए झिझकते हुए बोली उन्होंने मेरे इस प्रयास की सराहना की और एकदम राजी हो गए. गॉव की ग्रामीण महिलाओं की सहभागिता व अपनी ननद जेठ सासुओं की सहभागिता के बाद गढ़-कल्यो के स्वाद सभी के मुंह को भाने लगे और इस तरह श्रीमती नरेंद्र सिंह नेगी की जगह श्रीमती उषा नेगी भी गढ़-कल्यो के रूप में अपने नाम से जानी जाने लगी! वे इसे अपना सौभाग्य समझती हैं कि उन्हें नरेंद्र सिंह नेगी की धर्मपत्नी कहलाने का सम्मान मिला! वे कहती हैं कि महाकौथीग में भी मुझे कई लोग कह रहे थे कि अपने गढ़-कल्यो के स्टाल में आपको नेगी जी की फोटो लगा लेनी चाहिए मेरा एक ही जवाब था कि माना मैं उनकी पत्नी हूँ लेकिन मैं रचनाएं लेकर नहीं बल्कि अपने पारंपरिक पकवान लेकर आई हूँ! गढ़-कल्यो से नेगी जी का कोई लेना देना नहीं है क्योंकि वे अपनी विधा के पारंगत हैं और मैं अपने पकवानों पर भरोंसा रखती हूँ कि ये जरुर आपके मुंह का स्वाद बनाए रखेंगे!
अपनी संस्कृति के लिए जो परिवार पूरा जीवन ही समर्पित कर दे भला ऐसे परिवार के प्रति समाज क्यों नहीं जागरूक होगा. उषा नेगी को बस एक ही चिंता थी कि आने वाले समय में उनकी बहु व बेटा क्या उनकी व नेगी जी की तरह अपनी सामाजिक धरोहरों, लोक विधाओं या लोक संस्कृति के प्रति यूँहीं चेतना रख भी पायेंगे या नहीं लेकिन उन्हें बेहद ख़ुशी है कि उनकी बहु व बेटे भी उसी मार्ग की ओर अग्रसित हैं जहाँ बेहद चुभन भरे कांटे और त्याग हैं लेकिन एक संतुष्टि है कि समाज कहीं न कहीं उनकी गली से होकर जरुर गुजरता है. एक ऐसी गली जो विगत सदी में भी रही और इस सदी के लिए भी उन्होंने उसकी पौ तैयार कर दी है! सबसे ज्यादा ख़ुशी तो इस बात की है कि उनकी बहु उन परिधानों को आम जिन्दगी में प्रमोट करने की बात रखती है जिन्हें हम बहुत पीछे छोड़कर अपना अस्तित्व मिटाने को तैयार बैठे हैं! चिंता ये भी है कि अब जौनसार बावर या पिथौरागढ़ जिले का सीमान्त ही क्या उत्तराखंडी संस्कृति का जीवन जियेगा हम बाकी क्या संस्कृतिशून्य हो गये है! यही यक्ष प्रश्न भी है?
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.