(विनय केडी की कलम से)
कितने स्वार्थी और संवेदनहीन होते जा रहे हैं हम लोग……? कोरोना वायरस के इस दौर में अनिश्चितकाल के लिये रोज़गार छिन जाने के कारण जो प्रवासी उत्तराखंडी वापस आ अपने गांव आ रहे हैं, पहाड़ के लोगों को उन्हें गरियाते और दुत्कारते तक देख रहा हूँ ।
पहाड़ में बैठे किसी पहाड़ी द्वारा प्रवासियों के आने का विरोध करने का उतना दुख नहीं हुआ जितना कि उन संस्थाओं, बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों के द्वारा विरोध करने से हुआ जो शिक्षा स्वास्थय, स्वरोजगार और पलायन जैसे मुद्दों पर बड़े बड़े मंच सजाकर प्रवासियों को आवाज लगा लगाकर वापस बुलाने की बात करते नहीं थकते थे । साथ ही उन संस्थाओं के उदासीन रवैये से भी दिल आहत हुआ जिन्होंने महानगरों में अलग अलग नाम से उत्तराखंड की हितैषी सभाएं बनाई हुई हैं लेकिन केवल मंचों पर ता-छुमा, ता-छुमा कराने तक ही सीमित रह गईं हैं।
पहला सवाल उन संस्थाओं से जो पहाड़ के नाम पर महानगरों में संस्थाएं बनाकर खुद को ब्रांड के रूप में स्थापित दिखाते हैं…. कुछ एक संस्थाओं को छोड़कर बाकी संस्थायें यह बताएं कि क्या आपकी जिम्मेदारी केवल साल में आयोजित होने वाले मेले थौलों तक ही सीमित है ? वर्षों से आप लोग गाने-बजाने के नाम पर एक भारी भरकम बजट खपाते आ रहे हो । लेकिन आपने अपने शहरों में रह रहे उन उत्तराखंडी भाई बहनों के लिए इसके अलावा आज तक क्या किया जो या तो बर्तन मांजते रह गए या छोटी मोटी नौकरी करते रह गए ? …. कभी कुछ नहीं किया । लेकिन आज संकट की इस घड़ी में आप लोग उनको कुछ दिनों तक अपने स्थान पर ही रोककर 21 दिन तक रोटी खिलाने में असमर्थ दिखाई दिए । …..बेशक गर्मी के बाद चौमासा खत्म होते ही लाखों के बजट के मेले-थौले फिर से सज उठेंगे… लेकिन अफसोस…. अपनों को आज आपने सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया ।
दूसरा सवाल उन उन संस्थाओं, बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों के द्वारा विरोध करने से हुआ जो शिक्षा स्वास्थय, स्वरोजगार और पलायन जैसे मुद्दों पर बड़े बड़े मंच सजाते रहे लेकिन आज संकट की घड़ी में इन प्रवासियों की वापसी का विरोध कर रहे हैं… सवाल कि ये जो आज अपने घरों को वापस आ रहे हैं इन्होंने खुशी से अपना घर नहीं छोड़ा था रोजी , रोटी, और जीने की जरूरतों और परिवार की जिम्मेदारियों की जददोजहद ने उन्हें अपनी जमीन से रुखसत होने को मजबूर किया शायद इस उम्मीद के साथ कि शहरों की तरफ के रास्ते समृद्धि न भी सही तो कम से कम जीने की जरूरतों भर के द्वार खोलेंगे और जब ये जरूरतें पूरी होने लगेंगी तो एक दिन वो सक्षमता के साथ वापस आ सकेंगे , लेकिन किस्मत का खेल देखिए कि वापसी भी हुई तो दुत्कारे हुए शहर से शायद ठुकरायी गयी जड़ों कि ओर , एक जगह खाना न मिलने की वजह से वापसी को मजबूर और दूसरी जगह ताना मिलने के लिए मजबूर ….!
समझ नही आता कि आप कैसे इनकी वापसी का विरोध कर सकते हैं ? संकट की इस घड़ी में वो आज अगर वो वापस आ रहे हैं तो वे अपने बाप दादा की जोड़ी हुई जमीन पर आ रहे हैं । वो यहां का मूल निवासी है उसका हक है यहां आना । जिस पेट का संकट इनको गांव से शहर लेकर गया था, उसी पेट के साथ जान का संकट उन्हें आज गांव वापस ला रहा है । आज तो आपने बुजुर्गों की उस कहावत को भी झुठला दिया जिसमें वह कहते थे कि “अपना मारकर छाया में ही फेंकता है…” आप तो उनके सड़कों पर भूखे प्यासे मरने की वकालत करने लगे ।
अनिश्चितता और असुरक्षा की भावना में कैसे 21 दिन लम्बा वक्त काटते ये लोग ? भूख से मरने का डर कोरोना के ख़ौफ़ से ज्यादा भयावह है । इनको पता है कि कोरोना से ज्यादा खतरनाक हमारे देश का नकारा तंत्र है । इन लोगों की कमाई के साधन खत्म हो चुके हैं । अनिश्चितता के इस दौर में कितना समय मौत की दहशत में काटना पड़ेगा इसकी चिंता है । 1 तारीख को मकान मालिक से किराए को लेकर होने वाली तकरार की चिंता है । चार दीवारों में कैद रहकर परिवार और बच्चों के भूखे मरने की चिंता है । गांव वापस आना इनके पास आखरी विकल्प है । और इनके वापस आने का विरोध कौन कर रहे हैं… जिनके पास अपनी पक्की छत है, अगले एक से दो महीने के राशन की व्यवस्था घर के अंदर रखी है, और जरूरत पड़ने पर जेब में भरपूर कैश रखा हुआ है।
बेशक इनके गांव पहुंचकर सख्ती से 14 दिन तक इनके होम क्वारन्टाईन और आइसोलेशन का प्रबंध किया जाना चाहिए, जो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है, ताकि स्वास्थ्य सेवाओं के आभाव में कोरोना के खौफ़ में जी रहे स्थानीय बाशिंदों को कोई ख़तरा न हो । लेकिन आप उनको केवल मैदान से पहाड़ तक पैदल नापने के जोख़िम भरे काम और सड़कों पर भूखे-प्यासे मरने के लिए नहीं छोड़ सकते ।
राज्य सरकार इन लोगों के लिए कितनी संजीदा है ये आप भी जानते हैं । वो गुजरातियों को हरिद्वार से अहमदाबाद भेजने के लिए लक्जरी बसों की व्यवस्था तो कर सकती है लेकिन अपने उत्तराखंडी लोगों को हरियाणा बॉर्डर पर आधी रात के समय भूखा मरने के लिए सड़कों पर छोड़ देती है ।
आप कर सकते थे तो यह व्यवस्था करते कि ये लोग अपने घरों तक सकुशल पहुंचते, रास्ते में इनके लिए खाने पीने की व्यवस्था सुनिश्चत करते । इनके गांव पहुंचते ही गांवों में इनका होम क्वारन्टाईन और आइसोलेशन सुनिश्चित करवाते । और क्वारन्टाईन पीरियड खत्म होने के बाद यह लोग गांवों में कैसे रुके इसके बारे में परिचर्चा करते और इनके जख्मों पर मरहम लगाते । पर आप तो आप है साहब आप तो लगे नमक छिड़कने…, छिड़कते रहिये सबकी अपनी दुकानें हैं कोई जख्मो के लिए नमक रखेगा तो कोई दवा भी जरूर रखेगा और सुना है कि वक्त से बड़ा कोई मरहम नही होता , तो वक्त ही हिसाब करेगा…।