आकाश से उतरी अगासिया परियों की गुफाओं में जहाँ आज भी हैं उलटी ओखलियां..! देखनी हैं तो जाना पडेगा अन्यार का टिम्बा यानि जुल्का डांडा!
(मनोज इष्टवाल)
अद्भुत अकल्पनीय और रोमांच की जिसे हम परकाष्ठा कह सकते हैं वह अगर कहीं है तो देवभूमि के ताल बुग्याल व ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं से जुडी दंत कथाओं व पुष्ट प्रमाणों में आज भी ब्याप्त है! आज एक ऐसे ही लोक की यात्रा आप से साझा कर रहा हूँ जहाँ का दौरा बस यूँहीं अचानक बन गया और जब वहां पहुंचा तो विस्मित रह गया! इस रहस्य रोमांच भरी यात्रा को मैं एक लेख की भांति नहीं बल्कि ट्रेवलाग की तरह आपके समक्ष रख रहा हूँ उम्मीद है आपको पढने में आनन्द आयेगा!
अभी बीते 10 तारिख जुलाई की ही बात है जब मैं जौनसार के समाजसेवी इंद्र सिंह नेगी के साथ कॉफ़ी कैफ़े डे में बैठकर कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ बता रहा था कि परसों यानी 12 को हम चमोली जनपद के रतगांव स्थित भेकलनाग के मेले में शिरकत करने जा रहे हैं! वहीँ से ब्रह्मताल इत्यादि घूमकर रतगॉव स्थित तालगैर नाग मेले में शिरकत करेंगे जहाँ ठेठ अपने पारम्परिक पोशाकों में वहां के महिला पुरुष तांदी नृत्य करते दिखेंगे! मैं उत्सुकता के साथ यह सब बता ही रहा था कि तब तक उन्होंने मौसम विभाग की भविष्यवाणी सामने रख दी जिसमें आगामी दिनों में चमोली जनपद में जबर्दस्त बारिश दिखाई गयी थी! यह देखकर मन कॉफ़ी के घूंट सा कडुवा हो गया फिर तय हुआ कि क्यों न जब यह सब प्लान कर ही रखा है तो जौनसार स्थित टूरिस्ट डेस्टिनेशन “बैराठ गढ़” चला जाया!
हाथ मिले और कॉफ़ी पर अभी अभी पहुंचे देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल जी से उनकी रजा पूछी तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए! फिर क्या था मैंने कंडवाल जी को कहा आप नहीं चल रहे तो इतनी कृपा कर दीजिये मुझे अपने सुपुत्र प्रांजल की बाइक दे दीजिये क्योंकि वह पहाड़ के मिजाज के साथ मेरी बेहतर साथी रही है. उन्होंने बिना लाग-लपट का हाँ कह दिया और हमें मानों बिन मांगी मुराद मिल गयी हो!
12 सुबह से ही मौसम आशिकाना था. विगत दिनों गीता गैरोला दीदी ने इंद्र सिंह को नाश्ते का न्यौता दिया था उन्हें पता लगा हम दोनो साथ हैं तो मुझे भी उनके हाथ का लजीज नाश्ता नसीब हुआ! रास्ते भर में मौसम के कई उतार चढ़ाव झेलते हम आखिर बैराठ खाई आ पहुंचे! कैमरे ने जहाँ बीच में दो तीन क्लिक की वहीँ मौसम ने हमें कोथी गाँव की सरहद पर भिगो दिया जहाँ सडक से उतरकर हमने एक छानि में आश्रय लिया! मैं अपने साथ खुद मजाककर्ता हूँ या यूँहीं मजाक बन जाता हूँ समझ नहीं आया! बैग देखा तो लम्बा रेन कोट उसके अंदर पड़ा था। मौसम जरा सा थमा और मैं रेन कोट पहनकर आगे बढ़ चला। मौसम की बेहयाई देखिये पूरे रास्ते बारिश की बूंदे मेरे रेन कोट को सूंघकर निकल गयी! बैराट खाई में मौसम इतना सर्द कि ठंड अंतर्मन को छूने लगी. यहाँ चाय पी और रात गुजारने नागथात इंद्र सिंह नेगी के घर चले गये जहाँ जुलाई के महीने मोटी रजाई ओड़कर सोना पड़ा क्योंकि ठंड बेमिशाल थी! तभी तो कहता हूँ कि जून जुलाई के माह ठंड कैसी होती है पहाड़ों में आकर महसूस करो बशर्ते चौमास साथ हो!
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13 जुलाई को हमारा प्रोग्राम तय कार्यक्रमानुसार बैराट गढ़ का था अत: इस पर चर्चा करने की जगह हम 14 जुलाई के जुल्का डांडा कार्यक्रम पर आते हैं! विगत शाम की चुस्कियों में लाछा गॉव के चन्द्रपाल तोमर के साथ पहले ही तय हो गया था कि हम जुल्का डांडा उनकी छानियों की सैर करने निकलेगे! 14 जुलाई यानि आज सुबह सबेरे में अभी बिस्तर के अंदर ही दुबका हुआ था कि चन्द्रपाल तोमर नागथात स्थित इंद्र नेगी के घर पहुँच गए मुझे जगाते हुए बोले – अरे अभी आप सोयें हैं हम तो गाँव से भी यहाँ पहुँच गये!
चाय की चुस्कियां लेते लेते कब नौ बज गए पता तक न चला! जल्दी से नहाने धोने व नाश्ता निबटाने के बाद मैं व इंद्र नेगी नागथात बाजार पहुंचे तब तक साढे दस बज चुके थे! कैमरे की बैटरी चेक की तो जीरो परसेंट! फिर ध्यान आया कि मेरा कार्ड भी फुल हो रखा है! अब एक साथ दो मुसीबत! यहाँ विगत दो दिनों से लाइट नहीं थी! जैसे तैसे बैंक के जनरेटर पर अपनी बैटरी चार्ज को लगाईं तो कुछ देर बाद बिजली आ गयी! कार्ड फुल देखा तो दिनेश कंडवाल याद आ गए क्योंकि हर यात्रा में उनके कार्ड ने मेरी मदद की! फिर अपनी भुलक्कड़ी पर गुस्सा आया लेकिन करता भी क्या?
खैर लगभग आधा घंटा बैटरी चार्ज करने के बाद मन मसोसकर उसमें कई जरुरी वीडियो फाइल्स डिलीट की!अब एक और पंगा यह हुआ कि इंद्र नेगी को वहीँ रुकना पड़ा क्योंकि वे इंटर कॉलेज नागथात के छात्र अभिवाहक संघ के अध्यक्ष थे ! और यह और गजब हुआ कि लगातार 13वीं बार इन्द्र सिंह नेगी सर्वसम्मति से फिर अध्यक्ष बनाये गए। मैं और चन्द्रपाल बाइक से एक किमी. आगे पहुंचे जहाँ से हमने जुल्का डांडा की छानियों का रास्ता पकड़ा! छोटे बड़े बाँझ देवदार व कैल वृक्षों के बीच से गुजरती चिपचिपी मिटटी की बटिया में कठोर पत्थरों की छोटी- बड़ी शिलाएं पिछले दिन हुई बारिश का इतिहास भूगोल खुद बयान कर रहे थे!आज चढ़ाई चढ़ते वक्त चिलचिली धूप निकल आई थी मानों सूर्य देव भी प्रसन्न हों लेकिन यह प्रसन्नता मेरे लिए भारी पड रही थी! लगभग आधा घंटा लगातार चढ़ने के बाद हम अब एक मानव निर्मित तालाब के पास पहुंच गए थे जिसके बांयीं व दांयी ओर छानियां बनी हुई थी! मैंने सवाल किया- तोमर जी यहाँ कितनी छानियां हैं तब चन्द्रपाल का जवाब था- सर गिनी तो नहीं लेकिन अंदाजन कई हो सकती हैं क्योंकि इसमें चार गाँव जिनमें सिल्ला, लाछा, द्वीना व रामपुर प्रमुख हैं व इन गाँवों की सबसे अधिक् छानियां है के अलावा लगभग 3 किमि की परिधि के इस जुल्का डांडा में चिल्ला, रगताड उभोऊ की छानियां भी हैं!
खैर प्रसंग लम्बा हो रहा है इसलिए इसे संक्षिप्त में रखता हूँ! आज चंद्रपाल के बैल जिन्हें यहाँ की भाषा में भौद कहते हैं अब चरने के लिए खुले! जाते हुए जरुर मुझे गाली दे रहे होंगे कि इसके कारण हमारा गुसोई देरी से आया! यहाँ की भाषा में बैलों को भौद, भैंस को म्वेस व गाय को गाय को गाऊ, बकरियों को बाकरु व भेड़ों के लिए भेडा कहते हैं!
चन्द्रपाल ने अपने खेतों में गागली बोई हुई थी! उनसे पता चला कि वे हर साल लगभग 40 कुंतल तक गांगली बेचते हैं! जो प्रति मण 18 से 25 सौ रूपये बिकती है. जिसका सीधा सा अर्थ अगर हम लगाए तो एक कुंतल गागली 6 हजार रूपये किलो! अर्थात 40 कुंतल गागली लगभग ढाई लाख रूपये! वहीँ एक खेत में बीन भी बोये हुए थे जो वर्तमान में बिक रहे हैं! दो तीन खेत आलू के लिए खाली छोड़े हुए हैं! चन्द्रपाल बताते हैं कि इस बार लहसुन का दाम बहुत गिरावट पर रहा इसलिए उन्होंने अपनी ज्यादात्तर लहसुन स्टोर की हुई है! उनका मानना है कि काश्तकार अगर पूरी मेहनत से खेतों पर ध्यान दे तो सालाना काम से काम तीन से पांच लाख कमा सकता है!
खैर ये बातें होती रहेंगी हम मुख्य मुद्दे पर लौटते हैं! अब हम छानियों को पार करते हुए कीचड भरे रास्ते से ऊँची चोटी को मापने लगे थे! शानदार बुग्याली घास से लकदक ये चोटियाँ इस चौमास में खूब गुदगुदी लग रही थी! एक धार क्या पार की सारी थकान छू मन्तर हो गयी प्रकृति का अकूत सौन्दर्य मेरी आँखों के सामने खिलखिलाने लगा था! आस-पास की पहाड़ियां बेहद बौनी लग रही थी दूर मसूरी की चोटियों से उठते बादल लहलहाते हुए गगनचुम्बी कैलाश की तरफ बढ़ रहे थे! मटमैली यमुना रौद्र रूप में बलखाती मेरे बिलकुल नीचे तलहटी पर तेजी से अपना सफर पूरा कर रही थी वहीँ जौनपुर गढ़ की उतुंग शिखर मेरे इतने नीचे थी कि मैं उसे झुककर भी नहीं छू सकता था! मेरे बांयीं ओर बिसोई गाँव में महासू का चमचमाता मंदिर जबकि दांयी लक्स्यार, लखवाड़ के अत्याधुनिक निर्मित महासू मंदिर, दूर चोटी पर भदराज मंदिर व सड़क का मोड़ मुडती बिसोगिलानी इत्यादि से बादल आँख मिचोली खेल रहे थे! मेरे सिर के ऊपर गरुड़ यूँ मंडरा रहे थे मानों अपना शिकार ढूंढ रहे हों! अहा ऐसा अकूत सौन्दर्य मानों पूरी अल्हड जवानी बाँहें फैलाए मेरे गले में लिपटने को तैयार हो!
अभी बादलों का एक जत्था मुझे घेरने ही वाला था कि दूर कोई नारी स्वर सुनाई दिया! यह गीत मैंने कई बार सुना है इसलिए इसकी पंक्तियाँ भी याद थी वो सुर कुछ ज्यादा ही मखमली थे जो गा रहे थे- ढूंगै पार बिजोरी ले बिजोरी ला, जाया मेरा स्वामी ले बिजोरी ला…! अहा सचमुच ऐसा लगा मानों मन तृप्त हो गया है! मैंने चन्द्रपाल से पूछा – ये क्या है! वो बोला- अरे सर ……ये तो भूत है!
क्रमश…..