गतांक से आगे….!
पिछले अंक में आपने पढ़ा होगा:- “इन सबके वजूद को नकारने वाले विज्ञान वर्ग के उन छात्रों या वैज्ञानिकों से अनुरोध है कि अपनी प्रयोगशालाओं से बाहर निकल एक बार मेरे साथ ऐसे रोमांचक, कौतूहलपूर्ण व साहसिक यात्रों का लुत्फ़ उठायें ताकि आप जमीनी सचाई जान सकें! इंद्र सिंह नेगी व उनके सहपाठियों के आने के बाद क्या हुआ पढ़िए अगले अंक में जोकि जुल्का डांडा या अयांर का टीम्बा का आखिरी सफर होगा!”
(मनोज इष्टवाल)
हम अब वापसी के रास्ते पर थके हारे छानियों तक पहुँच गए थे! मेरे दिल में एक कसैला सा स्वाद जुबान पर ही था कि बादलों ने साड़ी रंगत बिगाड़ दी वरना हम अभी अयांर का टिम्बा पहुंचे होते। अभी हम चन्द्रपाल की छानी पहुंचे ही थे कि बारिश की बूंदों ने स्वागत क्या किया बादल हमको यूँहीं मझदार में छोड़कर तेजी से भागने लगे! चंद्रपाल लगातार अपने फोन से इंद्रसिंह नेगी का फोन लगा रहे थे लेकिन वह था कि लगने का नाम ही नहीं ले रहा था! चन्द्रपाल अंगुली से इशारा करते हुए बोले- वो देखिये बस उन छानियों का पास ही है अयांर का टिम्बा ! पक्का वे लोग वहीँ पहुंचे होंगे तभी फोन नहीं एजी रहा है! मैं थका हुआ भी था और घुटनों में पूर्व से ही बहुत दर्द था मैं बोला- कोई मुझे एक लाख भी दे तब भी अब वापस न जाऊं! अभी हमारी यही बात चल रही थी कि दूर से सीटी की आवाज गूंजी! चन्द्रपाल बोले- पक्का वहीँ हैं! प्रत्युत्तर में पहले चन्द्रपाल ने सीटी बजाई और बाद में मैंने! खैर सीटी बजने के बाद ही मेरा फोन घनघनाया फोन ने अपनी बत्ती जलाते हुए अंग्रेजी में लिखे शब्दों को उजागर किया! देखा तो इंद्र सिंह नेगी नाम उभर रहा था! मैंने फोन उठाया तो आदत की लाचारी के अनुसार इंद्र सिंह नेगी का शिकायती स्वर गूंजा- छोड़ो यार, तुम कहाँ हो! हम यहाँ अयांर का टीम्बा पहुँच गए हैं और तुम लापता हो! मैंने भी प्रत्युत्तर में शिकायती स्वर में जवाब दिया!- हद है अब आ रहे हो! फिर इंद्र सिंह को लगा कि हाँ मैं ही देरी से आया फिर बोले- अरे मीटिंग में फंस गया था तुम लोगों की लोकेशन कहाँ है? जवाब में मैंने जब बताया कि हम चन्द्रपाल की छानी में हैं तब उन्होंने बोला- आप लोग दिगम्बर की छानी की तरफ आओ!
आप्शन कोई और था ही नहीं ! थकान तो कम थी लेकिन मेरे घुटनों का दर्द चलने की इजाजत नहीं दे रहा था फिर भी मैं मजबूरीवश चन्द्रपाल के साथ आगे चल दिया! एक टर्न काटते ही चन्द्रपाल बोला- सर दिगम्बर का बकरा देखना कम से कम 70 किलो वजन का है! मैंने आश्चर्य वक्त करते हुए कहा- हैं, ऐसे कैसे हो सकता है! दरअसल यह आश्चर्य मेरी ओर से साफ़ तौर पर बनावटी था क्योंकि मैं न तो भेड़-बकरी पालक ही हुआ और न कृषक ही! जो बैल-बकरी, भेड़ खेत अन्न धन देखकर ख़ुशी इजहार करता लेकिन एक कृषक की भावनाओं का आदर करना मेरा परम दायित्व भी था!
हम अभी दिगम्बर सिंह तोमर की छानी के करीब पहुंचे भी नहीं थे कि उतराई उतरते हुए इंद्र सिंह नेगी, पूर्व प्रधान जयपाल सिंह नेगी (लाछा) व छोटी सी अनन्या दिखाई दिए! मुझे हैरत इस बात की थी कि अनन्या इतनी चढ़ाई कैसे चढ़ गयी! खैर आपसी शिकवा शिकायत के बाद हम दिगम्बर की छानी तक पहुंचे! उन्होंने अपनी कहानी खूब व्यवस्थित की हुई थी! आँगन के बाहर अखरोट का पेड़ ! आँगन में पड़े घास के पास गंडासा, ऊपर जाती सीढियां तो बांयी ओर वाटर हार्वेस्टिंग प्लांट का बहुत खूबसूरत उपयोग! सच कहूँ तो यह देख मैं मन्त्र मुग्ध हो गया कि इतनी उंचाई पर पानी के सोर्स को कितनी बखूबी यहाँ के लोगों ने इस्तेमाल किया हुआ है! बरसाती पानी की बूंदे जो ढालदार छत्त से टपकती हैं उन्हें एक अर्धचन्द्राकार टिन के लम्बे पतवार से इकट्ठा कर सीधे टैंक में डाला गया था ताकि जितना भी पानी छत्त से गिरे वह सीधे टैंक में जाए! वास्तव में बाहर बंधे बकरे को देखकर तबियत खुश हो गयी उसकी ऊंचाई मेरी कमर कमर तक थी। अब तक दिगम्बर हमारे लिए पानी ले आये थे! इंद्र सिंह नेगी की बिटिया अनन्या झट से आकर मेरी गोदी में बैठ गयी जैसे मानों कब से उसे खुद लगी हो मेरी! यकीन मानिए यह बचपन जब आपके करीब आता है तो आपकी प्रसन्नता इतनी बढ़ जाती है कि आपकी थकान दूर कहीं दूर लोप हो जाती है! अनन्या का स्पर्श भी कुछ ऐसा ही था! उसकी आँखों में झलकता प्यार उसकी मासूमियत और अंदाज को बयाँ करता नजर आ रहा था फिर जाने कहाँ से उसकी दिगम्बर के सेबों पर नजर लग गयी व झट से एक सेब लेकर खाने लगी!
अब तक दिगंबर हमें अपनी छानी के ऊपरी मंजिल में बैठने को बोल चुके थे ताकि थकान मिटाई जा सके! यह क्या कुछ ही देर में एक की जगह दर्जन भर सेब आ गए व चाक़ू से काटकार थाली में परोसे भी गए! इंद्र सिंह ने पूर्व प्रधान जयपाल, चन्द्रपाल व दिगम्बर को संबोधित करते हुए कहा कि ये इष्ट्वाल जी वहीँ हैं जिन्होंने जौनसारी समाज को सबसे पहले विजुअलाइजेशन के माध्यम से फिल्माया! इन्होने ऐसे कई ट्रेक रूट चिन्हित किये जिन्हें प्रदेश सरकार ने ट्रेक ऑफ़ द इयर घोषित किया! मैं बोला- क्या इंद्र भाई आप भी छोड़िये ये सब! लेकिन सच कहूँ तो कौन आदमी ऐसा होगा जिसे अपनी प्रसन्नता अच्छी न लगती हो! अंदर से मैं भी खुश था कि कम से कम इन चार से चार औरों के पास मेरी खबर तो पहुंचेगी ही! इंद्र नेगी ने कहा- मनोज भाई, अब ये बताओ इसे कैसे विकसित किया जाय! मैं मुस्कराया व बोला- यह देहरादून से सबसे नजदीकी ट्रेक रूट बनाया जा सकता है जिसमें आप पहले बैराट खाई से विराट गढ़ चढो और फिर उतरकर बैराठ खाई से जुल्का डांडा आ जाओ! बमुश्किल सारा ट्रेक 6 किमी. का भी नहीं है! आप लोगों ने वाटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से छानियों में पानी की व्यवस्था तो करवा ही रखी है बस शौचालय बनवा दीजिये! मेरा यकीन कीजिये यहाँ रात ठहरने के लिए मसूरी देहरादून से इतने पर्यटक आ जायेंगे कि साड़ी छानियां लबालब भरी रहेगी क्योंकि इतना खूबसूरत पर्वत शिखर आस-पास कोई है ही नहीं! मेरी बात सुनकर सबके चेहरे चमकने लगे व अब तय हुआ कि सितम्बर तक यहाँ एक ऐसा ही कैम्प लगाते हैं जिसमें हम शुरुआत करते हैं! यहाँ रात रूककर जंगू, भाभी, छोड़े, लामण, केदारवाछा, भारत इत्यादि गाकर रातें गुलजार की जाएँ व प्रकृति संसाधनों की पूरी इज्जत कर एक अकल्पनीय कैम्प लगाया जाय!
मैं सच कहूँ तो फिर गा ही पडा- आर बसणा पार बसणा लाणा गंगी रे गीत..! हंसी ठिठोली हुई तो अब मेरा मन हुआ कि वापसी को चल देते हैं सबने कहा ये क्या बात हुई! जुल्का आकर आप अयांर टीमा देखे बिना जा कैसे सकते हो! अनन्या बोली- अंकल आप इतनी जल्दी थक गये मैं अभी चार बार उतर चढ़ सकती हूँ वहां! बिलकुल मन नहीं था लेकिन चढ़ना ही पड़ा! छानियों के बीच से होता हुआ यह रास्ता यहाँ के वासियों के पसीने की खुशबू से लकदक उगी फसलों को महकाएं हुए था कहीं आलू, कहीं अखरोट, कहीं सेब , कहीं गागली, कहीं शिमला मिर्च कहीं फ्रेंचबीन बस यही निहारता हुआ हर कदम आगे बढ़ रहा था ! अरे यह क्या मात्र 20 मिनट में हम अब झांडीधार वाली उन्हीं छानियों में आ गए थे जहाँ से खाना खाकर लौटे थे! यहाँ से आगे बढ़ते हुए बमुश्किल 10 मिनट की चढ़ाई चढ़कर हम मदमस्त ठंडी हवा व फिजा के साथ अयांर का टीमा या टिम्बा पहुँच चुके थे! गर्मी के मौसम के बावजूद यहाँ ठंडी झुरझुरी लग रही थी!
यहाँ से जब मैंने प्रकृति का वैभव देखा तो दंग रह गया क्योंकि मेरे ठीक सामने रवाई जौनपुर की पहाड़ियों के पीछे हिमालयी उतुंग शिखरें बादलों की ओट से कभी कभार बाहर झाँक रही थी वहीँ बांयी ओर मसूरी से लेकर पछवादून का समृद्ध हिस्सा, ठीक पीछे कालसी, विकास नगर से देहरादून तक का बिशाल साम्राज्य और उनके पीछे शिवालिक श्रेणियां, तो हल्के दायें हिमाचल का पौंटा नहान क्षेत्र, तो बिलकुल दांयी ओर मुस्कराता खिलखिलाता राजा विराट का किला बैराट गढ़!
अभी इस सम्मोहन से जगा भी नहीं था कि पूर्व प्रधान जयपाल बोले- सर ये रहा अगासिया परी का चौंतरा! मैं आश्चर्यमिश्रित स्वर में बोला- अरे ये चौंतरा नहीं चौखुडू चौन्तुरु हुआ जिसमें परियां सम्मोहित हो नृत्य किया करती थी व जिनका वर्णन पुराणों में मिलता है! मेरे मुंह से अष्ट अप्सरा आवाहन मन्त्र स्वत: ही फूटने लगे और मैं बडबडाया:- तत्क्षषयसर्वाप्सरस आगच्छा गच्छ हूँ य: य:! ऊँ उर्वशी आगच्छा गच्छ स्वाहा! ॐ स: रम्भे आगच्छा गच्छ स्वाहा! ॐ हूँ मेनके आगच्छा गच्छ स्वाहा!
ॐ रत्नमाले आगच्छा गच्छ स्वाहा! ॐ श्री तिलोतमे आगच्छा गच्छ स्वाहा! ॐ श्री कांचनमाले आगच्छा गच्छ स्वाहा! ॐ वा: श्री वा: श्री भूषणी आगच्छा गच्छ स्वाहा! ॐ श्री राशि देव्यागाच्छा आगच्छा गच्छ स्वाहा!
अब मैं ये तो नहीं जानता कि परी और अप्सराओं में कितना भेद है लेकिन अगासिया परी जिसे यहाँ के लोग अगासिया देवी बोलते हैं आकाश से उतरी बताई जाती है ऐसे में तय माना जा सकता है कि ये परियां भी अपने रथों से देवलोक से ही उतरी हैं क्योंकि मेनका नामक अप्सरा भी कण्वा घाटी में ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने स्वर्ग से ही उतरी बताई जाती है!
आपको बता दूँ कि आज भी गढ़वाल के कई तांत्रिकों की पत्नियां भूतनी या राक्षसी वंश की हैं जैसे मेनका अप्सरा से उत्पन्न पुत्री शकुन्तला से भरत उत्पन्न हुए और उन्होंने भारतब्रश की स्थापना की! अब बारी इंद्र सिंह नेगी की थी वी बोले- भाई, यहीं कहते हैं अगासिया परी के साथ पंचभैया का रथ उतरता है! और जब वे आते हैं तब इस थात या टीमा में ढोल बाजों की आवाज गूंजती है! हमारे पुराने बताते हैं कि फिर उनके बाजों में अगासिया परी नाचा करती है! यह ढोल बाजे के स्वर हम भी कई बार सुन चुके हैं! जयपाल तोमर, दिगम्बर व चंद्रपाल ने उनकी हाँ में हाँ भरी कि वास्तव में यह बात सच है! मैंने चौखुडू चौन्तरू का विस्तार का आंकलन यूँ ही अनुमान तय लगाया जो मुझे 5 बर्ग मीटर में फैला दिखाई दिया! मैंने जितना मुझे ज्ञान था कोशिश की कि उसको यहाँ बखार ही दूँ अत: फिर शुरू हो गया :-
(यात्रा में अनन्या भी शामिल)
तुम रंदा ले तै दांगुडिया गाँऊँ, दिसई दांगुडियों! तुम होली रौतु की ध्याण दिसई दांगुडियों! अगासिया बैणी द्यु ह्वेग्ये उराड़ो दिसई दांगुडियों! तख ऐग्ये पंच भैया रथ दिसई दांगुडियों! यह पूरा याद नहीं आया तो फिर बडबडाने लगा – सुवा पंखी त्वेकू मी साडी ध्युंलो, त्वे सणी लाड़ी मी गैणा द्युलो, नौरंगी त्वेकू मी चोली द्युन्लो, सतरंगी त्वेकू मी दुशाला द्युन्लो, सतनाजी त्वेकू मी दैजा द्युन्लो, औंला सारिक त्वे डोला द्युन्लो, सांकरी त्वेकू मी समूण द्युन्लो, झिलमिल ऐना त्वे कांघी द्युन्लो, न्यूती की लाडी त्वे थैंन बुलोलो, पूजिकी त्वे साडी घर पैठोलो!!
आप सभी से अनुरोध है कि आप सचमुच ही ऐसे स्थान पर जाकर यह सब कहीं उच्चारित मत करने लग जाना क्योंकि ये दिखने की चंद पंक्तियाँ हैं लेकिन बिना इन साबर शब्दों को मन्त्रे बोलना खतरनाक है! दरअसल यह शब्द में इसलिए इस यात्रा वृत्त में शामिल कर रहा हूँ क्योंकि यह परीलोक के तिलिस्म की वह छटा है जिसका विन्हास न करूँ तो आप बस यूँ हल्के में यह सब ले लेंगे! मैं अच्छे से जानता हूँ कि हमारी उम्र की कई महिलाओं ने यह पूजा अपने गाँव के ऊँचे थानों में डोली-गुड्डी चढ़ाकर दी होगी या फिर नदी किनारे! इसे मुख्यतः गाँव में जल छाया, जल मसाण, थल मसाण या थल छाया के रूप में पूजा जाता रहा है! यह अक्सर उन माँ बहनों की पूजा का साधन था जिनकी शादी होते ही चेहरे में छाया पड़ जाती थी. गर्भ धारण करते ही गर्भ गिर जाया करता था और फिर डोली गुड्डी चढ़ाकर यह दोष दूर किया जाता था उसके बाद न चेहरे पर छाया रहती थी व न गर्भ ही गिरता था! अब यह सब समाप्ति की ओर है क्योंकि अब इसका अस्तित्व लोक ही ख़त्म हो गया है लेकिन सच ये है कि ये सब परी आंछरी पूजा ही थी!
खैर अयांर का टीमा पहुंचकर बेहद शकुन महसूस हुआ फिर कथाक्रम आगे बढ़ा तो मुझे याद आया कि अभी कुछ देर पहले तो पंचभैया कहानी पांडवों से जोड़कर कही गयी थी! मैंने इंद्र सिंह से पूछा- भाई ये तो पांडव थे न पंचभैया! इंद्र अपनी ही रौ में बोले- किसने कह दिया ये! अरे भई ये अगासिया देवी के रथ के साथ चलते हैं और ये हम सभी जानते हैं कि ये अगासिया के साथ ही हैं जो खीर बनी है तो खा जाते हैं सब चट कर जाते हैं! मुझे खीर का वह किस्सा याद आया तो जोर से हंस दिया और वही उनको भी सुनाया सभी हंस पड़े व बोले- सच में यह किस्सा सच्चा है! मैंने कहा अब जब हम यहाँ रुकेंगे तो उस दिन भी खीर ही बनायेंगे शायद तब आगासिया परी व पंचभैया से मुलाक़ात हो जाय! और इस तरह समाप्त हुई हमारी तिलिस्मी यह यात्रा! इस यात्रा का एक छोटा सा vedio शेयर कर रहा हूँ उसे देखिये जरूर क्योंकि लगभग 7500 फिट की ऊंचाई पर जाने कहाँ से ये आवाजें आ रही थी जो हमें रिकॉर्ड करते वक्त नहीं सुनाई दी। जबकि इतनी ऊंचाई पर न बैल थे न कोई अन्य जानवर।
(समाप्त)