अरे सर ये तो भूत है…!
(मनोज इष्टवाल)
पिछले अंक को जहाँ हमने छोड़ा था वह अंतिम इस तरह था…”ढूंगै पार बिजोरी ले बिजोरी ला, जाया मेरा स्वामी ले बिजोरी ला…! अहा सचमुच ऐसा लगा मानों मन तृप्त हो गया है! मैंने चन्द्रपाल से पूछा – ये क्या है! वो बोला- अरे सर ये तो भूत है!”
मैं सकपकाया क्योंकि अब तो बादलों ने हमें अपने आगोश में ले लिया था ! मैंने पूछा– भूत…! कौन है कहाँ है? मेरी आवाज की भ्रान्ति को समझकर चन्द्रपाल तोमर मुस्कराए और सीधी अंगुली उठाकर बादलों की ओट से बाहर निकलते पत्थरों के एक चबूतरे की तरफ उठा दी! यह कालांतर में मंदिरनुमा कुछ रहा होगा ऐसा प्रतीत होता है! वह बोला सर यहाँ हम भूत पूजते हैं हर साल उसे रोट प्रसाद बनाकर देते हैं!
मेरा प्राण अपनी जगह पर आ गया सच कहूँ तो अंदर से हिद्र कांप गए थे! क्योंकि हम ऐसी ढाल पर थे जहाँ से नीचे मीलों गहरी खाई दिखाई दी थी जो बादलों में चुप गयी थी! मैंने मन को संयत कर अपने में कान्फिडेंस लाते हुए कहा – अरे तोमर जी ये नहीं मैं तो उस आवाज की बात कर रहा हूँ जो यहाँ तक सुनाई दे रही थी! किसी महिला के गाने की आवाज! चंद्रपाल बोले- ओहो सर, वो नीचे देखिये, बादलों की झुरमुटों के बीच गागली के खेत में गुड़ाई निराई कर रही वो द्वीना गाँव की महिलायें हैं जो बेहद तन्मयता से कार्य करती हुई मन बहलावे को यूँ गीत गा रही हैं! ये तो कुछ भी नहीं सर! पहले छोड़े, भाभी, जंगू इत्यादि खूब गूंजते थे यहाँ! अभी बकराव (बकरी चुगाने वाले) के छोड़े कहाँ सुने आपने!
मैं स्वप्न से जैसे जाग कर बाहर आया होऊं! मुझे पर्वत क्षेत्र के भेडालों के लामण! व बावर क्षेत्र व भरम क्षेत्र के बकरी चुगाने वालों के वे सभी दर्द भरे छोड़े यकाएक याद हो गए! और तो और मैं अपने आप भी गंगी गाने लगा:- आटा गोंद्के बनाए फुल्के, आज गंगी तेरे पाउनै कल जाणा पराये मुलके!” काश….मैं यहीं रुक जाता तो अच्छा होता सोचा क्यों न अपने पौड़ी गढ़वाल के इसी धुन में गाये जाने वाले लोकगीत से इसकी क्षति पूर्ती कर दूँ और मैं शुरू हो गया- “प्यारी बोटी जालू धागु, भर्ती खुलीं च जम्बू ऐ मित भर्ती होणु कु लागू!”
चन्द्रपाल तोमर भला क्या समझे इस ब्यथित मन की भाषा! वह बोले- सर यहाँ से उपर टॉप की ओर चलते हैं ! वहां झांडे का डांडा हुआ! वहां से और खूबसूरत नजारे दिखेंगे! उधर विराट गढ़ और सेली खत्त तो इधर जौनपुर, नागटिब्बा व लखवाड, यमुना पुल! मैंने सर हिलाया व आगे बढ़ गया! हवा की फरफराहट के साथ ऊपर बढ़ते कदम बुग्गीदार मखमली घास में धंस से रहे थे! नीचे चट्टानों पर बकरियां व बुग्याली ढालों पर गाय बैल चुग रहे थे! अब बादल हमसे विदा लेकर दूर हो गए थे! वास्तव में झांडे का डांडा पहुँचने के बाद जब चारों और नजर फिराई तब प्रकृति का वैभवपूर्व सौन्दर्य आँखों के सामने था! यहीं दूसरा भूत टिब्बा था वह भी अब सिर्फ उजड़े चबूतरे से ज्यादा कुछ नहीं था! लेकिन उसकी पुरानी माप मुझे 5×5 फिट दिखाई दी! जिसकी बुनियाद अभी भी उसके अतीत का वर्णन बखान कर रही थी!
हम अब लगभग 7500 फिट की उंचाई पर थे लेकिन यह क्या इस से भी आगे खेत और उस में भी गागली बीन्स की फसल! खेतों में काम करते लोग! चन्द्रपाल ने पूछने से पहले ही बताया कि ये उन्हीं के गाँव लाछा के खेत हैं जिनमें एक छानी पूर्व प्रधान जयपाल सिंह तोमर जी की व दूसरी स्वयं जीत सिंह तोमर जी की है! आओ सर वहीँ चलकर खाना खाते हैं! मैं चिकन व रोटी नागथात से ही बनवाकर लाया हूँ!
हम भूत का डांडा जिसे झांडे का डांडा भी कहते हैं से ढाल उतरकर कंटीली बाढ़ लांघते गागली के खेत में जा पहुंचे। वहां पति पत्नी अपने खेतों में उगी गागली को खाद दे रहे थे। चंद्रपाल तोमर ने जौनसारी भाषा में मेरा उनसे परिचय करवाया व मेरे आने का प्रायोजन भी समझाया।
दूसरे खेत में बीन्स की निराई व छंटाई कर रहे जीत सिंह तोमर व गोरखा दिखे। जीत सिंह जी हमें देखते ही खड़े हुए और हमें अपनी छानी में ले गए जहां उन्होंने अपने व अपने साथ के नेपाली के लिए खाना बनाया था बोले- खाना बना है व शानदार सफेद राजमा की दाल। आओ खाना खा लो। मैं मुस्कराया व बोला- आप लीजिये क्योंकि खाना कम पड़ जायेगा। वे तपाक से बोले – ये तो हमारे सौभाग्य की बात है। आप हमारे मेहमान हुए अभी और भी बन जायेगा। चंद्रपाल बोले- मैंने तो वहीं से बनवा कर लाया हुआ है। फिर क्या था थालियां सजी और इधर स्वादिष्ठ राजमा चावल व चिकन थालियों में आ गया। वास्तव में राजमा कुछ ज्यादा ही स्वादिष्ठ थी। मैं मन ही मन सोचने लगा कि यह सब पहाड़ में ही सम्भव हो सकता है। आपस में बांटकर खाना एक दूसरे का अपने से ज्यादा खयाल रखना अपने आप में लाजवाब था।
अब मेरी चर्चा भूत पर होनी ही थी। चंद्रपाल जितना जानते थे बता चुके थे। जीत सिंह जी से पूछा तो वे बोले- अरे साब, ये भूत हमारे भौद, गाऊ व म्वेश पर चिपक जाते हैं व उन्हें पैरालाइज्ड कर देते हैं। जिस से बड़ी पशु हानि होती है। इसलिए इनके इन टिम्बों में हमें हर साल इनकी पूजा देनी होती है। पूजा में इन्हें पुआ प्रसाद तो अगासी मात्रि (अगासिया परी) को हर बर्ष हमें फाटी देनी पड़ती है।
अब ये फाटी क्या हुई मेरे मुंह से अनायास ही निकला। वे बोले- साब फाटी उसको बोलते हैं जो बकरी बच्चा नहीं जनती उसे फाटी बोलते हैं। मेरे मुंह से निकल पड़ा ओह- बैड बकरी। बोले नहीं साहब फाटी…!
मैं हंसा और बोला हमारे पौड़ी में ऐसी बकरी को बैड ही बोलते हैं। वास्तव में यह विशुद्ध रूप से शुद्ध मानी जाती है। क्योंकि इसमें प्रजनन के कीटाणु नहीं पाए जाते । शायद यह भी कारण रहा हो कि अगासिया परियों की इच्छा तभी इसे स्वीकारने की रही हो। क्या आपने भी कभी परी देखी हैं? मेरे इस प्रश्न के जवाब में उनका जवाब था! देखी तो नहीं लेकिन महसूस की हैं। कई बार डांडे में पूर्णमासी को अगर हम ठहर गए तो यहां उनकी हंसी खिलखिलाहट व ढोल सी आवाज सुनाई देती है।
मैंने प्रश्न किया कि हद है! मैंने तो सुना आप ही के गांव के नाथा सिंह के गले का घेंघा वे खिलौना समझ उतार लें गए थे? वे हंसे व बोले। अब नाथा सिंह थे या कोई और ये कहना उचित नहीं होगा। फिर चन्द्रपाल तोमर से जौनसारी में बोले ये तो जसमती व नाथा की बात जानते हैं।
अब मुझे एक और क्लू मिल गया मैंने कुरेदकर बोला कि हद है तोमर साहब, आप लोग नहीं जानते मैं तो ये भी जानता हूँ कि आप ही की छानियों में बनी खीर वे कहा गयी थी। उन्होंने आश्चर्य से मेरी ओर देखा व बोले- अरे नहीं साब, वो अगासी देवी नहीं बल्कि पंचभैय्या थे।
मेरे मुंह से निकला- पँचभैया? उन्होंने कहा – ओ मेरी अंगुली की सीध में वैराट गढ़ है ।कभी वे वहीं राजा विराट के यहां गुप्तवास रहे और वे अक्सर इसी रास्ते जमुना जी जाया करते थे ऐसी मान्यता है। अरे साब पहले यहां कहां पेड़ पौधे हुआ करते थे हमारे पुराने बताते हैं यह तो नांगी धार थी। लेकिन एक कुमाऊँ का जंगलाती अफसर चन्द्र करगेती आया जिसे हम रेंजर साब कहकर जानते थे उसके जमाने में उसने यहां कैल, बांझ, व देवदार की पौध लगाई तब से नीचे की छानियों के आस पास पेड़ उग आए। हम लोग भी कहाँ छानियों में खेती करते थे ये तो नेपालियों ने यहां खेती की। और गजब तो ये हुआ कि अब वे सब वापस नेपाल चले गए। तब से हम ही अब यहां खेती करते आ रहै हैं। वे हमें खेती करना सिखा गए।
मैं मुख्य मुद्दे पर आया और पूछा ये नाथा सिंह व जसमती देवी का परियों से जुदा क्या किस्सा है! तो वे बोले- ये लाछा के थे या क्यारकुनी के कह नहीं सकते! लेकिन नाथा सिंह लाछा गाँव के अभी हाल ही में स्वर्ग सिधारे हैं! बताते हैं कि वे बाकरू के साथ अन्यार का टीम्बा ( आगासिया देवी/परी) मंदिर के बुग्याल में सर्दियों की धूप सेंक रहे थे! नाथा सिंह के गले में घेंघा था परियां आई व उसे खिलौना समझकर निकाल ले गयी! घर जाकर सबने देखा नाथा सिंह का घेंघा लापता है! तब नाथा सिंह ने आप बीती बताई वहीँ पूर्व प्रधान बताते हैं कि दूसरे दिन एक और ब्यक्ति व कोई औरत वहां व्यक्ति छाती के बल लेट गया जबकि औरत मुंह आसमान की तरफ! परियों को लगा कि ये वही व्यक्ति है जिसका वे कल खिलौँना छीनकर ले गयी तब उन्होंने उस औरत के गले का घेंघा उस व्यक्ति की गर्दन पर लगा दिया!
ये दंतकथाएं इसलिए भी नहीं कही जा सकती क्योंकि इन्हें गुजरे अभी कुछ ही साल हुए हैं!
अगासिया परियों को अब इन्होने अपनी देवियाँ मान लिया है इसलिए हर साल इन्हें ये भोग के रूप में फाटी चढाते हैं तब परियां हर संभव इनके जानवरों की व फसल की रक्षा में इनका सहयोग करती हैं!
(वहीँ पंचभैया का किस्सा बेहद रोमांचक है वे किस तरह खीर खा गए और किस तरह एक बुजुर्ग ने पकड लिया यह अगले अंक में…..)