भीष्म कुकरेती
कई गढवाल -कुमाओं प्रेमी विद्ववान भावना में बह कर लिख डालते हैं या कह डालते हैं कि वेदों की रचना गढवाल -कुमाऊं या हिमालय में हुई (जैसे मैंने डा राजेश्वर उनियाल को एक सम्मेलन में कहते सुना)।
यह कथन सर्वथा भ्रामक व इतिहास को मोड़ने वला कथन है
जब किसी ग्रन्थ या सिधान्तो कि रचना किसी भूभाग में हो तो रचनाकार बरबस उस भूभाग के बारे में कुछ ना कुछ लिख ही डालता है या कह डालता है।
किन्तु वेदों में यह रीति कहीं नही मिलती है। मैंने चारों वेदों का थोड़ा बहुत अध्ययन किया और पाया कि वेदों की रचना पहाड़ों में नही हुयी है।
१- वेदों में कृषि आदि कि पुष्टि होती है और वास्तव में गढवाल-कुमाओं में कृषी विकास वेदों के समय पर हुयी ही नही वल्कि कृषी विकास का मुख्य विकास छटी सदी से ही हुआ।
२- वेदों में ठण्ड , बर्फ आदि का उल्लेख बहुत कम हुआ है।
३- वेदों में पशु धन पर जोर दिया गया है और आज भी या तीन हजार साल पहले भी पशु धन गढवाल- कुमाऊं में इतना नही था कि उनकी उस तरह से चर्चा की जाय जिस तरह वेदों में है।
४- वेदों में नदियों, औषधियों के बारे में उस तरह का वर्णन नही मिलता जिस तरह की औसधी /नदियाँ पहाड़ों में अवस्थित होती हैं हाँ सरस्वती व सप्त नदियों का नाममात्र का उल्लेख है जिसमे सरस्वती को पर्वत तट चीरने का उल्लेख है।
५- जिस तरह से पहड़ों का उल्लेख महाभारत व कालिदास साहित्य में मिलता वैसा कुछ वेदों में नही है।
६- वेदों में इंद्र व अग्नि देवता मुख्य देवता रहे हैं जो वैष्णव व शैव धर्मों के अभ्युदय के बाद इंद्र को मुख्य धारा से काट दिया गया . यदि वेदों की रचना पहड़ों (गढवाल-कुमाऊं ) में होती तो गढवाल -कुमाओं के पारम्परिक देवताओं में इंद्र इन्द्राग्नी, अग्नि आदि भी होते जैसे खश , कोळी कालीन पारम्परिक देवताओं क़ी पूजा आज भी होती है।
7- जिन जिन ऋषियों के नाम वेदों में हैं उस प्रकार के नाम खस सभ्यता में या उस से पहले नही मिलते हैं यदि वेदों की रचना पहाड़ों में होती तो ऋषियों के नाम खश या उस से पहले की सभ्यता वाले नाम से अवश्य मिलते।
8 – हिमालय नाम एक या दो बार आया है ।
9 गंगा नाम भी एक या दो बार आया ।
अतः हमे भावनाओं कि जगह तार्किक दृष्टि अपनाकर यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वेदों कि रचना पहाड़ों में हुयी।
इतिहासकार डा शिव प्रसाद डबराल ने भी सिद्ध किया है कि वेद रचनाओं का गढ़वाल -कुमाऊं से कुछ लेना देना नहीं है ।