Thursday, December 12, 2024
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लाखामंडल का द्रुपदा ताल….! अक्षत यौवना द्रोपदी को माना जाता है मातृकाओं की देवी!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 3 जून 2019)

कुछ तथ्य मुंह चिढाते हुए अपने होने की उपस्थिति तो दर्ज करवाते हैं लेकिन इतिहासकार इतिहास की उन्हीं पंक्तियों में हमेशा सच्चाई ढूंढते हैं जिन्हें उनसे पूर्व के इतिहासकार लिख चुके हों और उन्हें कोड किया जा सके! बस…यहीं हम अपनी डार्क हिस्ट्री से बंचित रह जाते हैं! फिर भी मेरा एक ही मकसद होता है कि चाहे इसे कोई कपोल-कल्पित ही क्यों न कहे लेकिन अपने लोकसमाज की किंवदंतियों, फोकलोर, कथा-ब्यथा में पुरातन काल से एक कान से दूसरे कान सुनती आ रही उस विरासत को निरंतर आप लोगों की परोसता रहूंगा ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी हमारा होने का आभास करवा सके ताकि हम हजारों-हजार सालों के अपने इतिहास के उन काले पन्नों में आखर उकेर सकें जो सिर्फ एक मुंह से दूसरे मुंह एक कान से दूसरे कान तक ही पहुँचता रहा उसका कभी द्स्तावेजीकरण नहीं किया जा सका!

हम ( अविनाश उनकी पत्नी स्वेता पाठक बेटा बाबू व मैं) 3 जून 2019 को अलसुबह ही चकराता फारेस्ट बंगले से निकल चुके थे क्योंकि हमें आज लंबा सफर करते हुए किसी भी सूरत में आज मसूरी तक का सफर तय करना था! प्लान यह हुआ कि हम टाइगर फाल होते हुए क्वांसी, गौराघाटी, लाखामंडल होते हुए मसूरी पहुंचेंगे! इसलिए टाइगर फाल का मनोरम दृश्य देखते हुए हम क्वांसी बाजार लांघकर जैसे ही गौरा घाटी पहुंचे, पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार हमें यहाँ नाश्ता करना था! अचानक लाखामंडल से सपरिवार सफर करते हुए हमारी व आजतक बडकोट उत्तरकाशी के छोटे भाई पत्रकार मित्र ओंकार बहुगुणा की कार आमने सामने हुई! चलते-चलते दुआ सलाम और उसके बाद बारिश की बूंदाबांदी के बीच गौरा घाटी की उस पुरानी दूकान को ढूँढने लगा जिसमें बर्ष 2003 में सर्वप्रथम अपने पशुपालन के फार्मासिष्ट भाई स्व. हरीश इष्टवाल के साथ सचल वाहन से आकर चाय पी थी! अब यहाँ वह पुरानी इकलौती दूकान नहीं बल्कि चार से पांच दुकानें हो गयी थी! फिर भी मेरा अनुमान सही निकला व सडक में मोड़ से ढलाई वाली दूकान को पहचानते हुए पूछ लिया कि ये उन्हीं लाला जी की दूकान है तो उनके पुत्र ने सर हिलाकर जवाब दिया! यहाँ हमें दाल चावल मैगी वैगी जो मिला खाया और बढ़ चले लाखामंडल की ओर…! कार में बैठते ही बारिश तेज हो गई! जिसने हमारा पीछा मानथात तक किया! लेकिन लाखामंडल से पहले ही द्रुपदा गुफा में जाने के लिए गाडी क्या रोकी मुसलाधार बारिश ने फिर हमें वहीँ बनी एक दूकान में रोक दिया! स्वेता व उसका पुत्र बाबू गाड़ी में ही रहे जबकि मैं अविनाश जी के साथ गुफा की तरफ आखिर लपक ही गया! बमुश्किल गिनती के तीन सौ साढे तीन सौ कदम नापकर जब गुफा तक पहुंचे तो देखा द्रुपदा ओडार/गुफा में अब माँ भवानी का मंदिर विराजमान था व उसमें विधिवत पूजा के लिए पुजारी! जो गुफाएं थी व बंद कर दी गयी थी व जो यहाँ से पहले थी उनमें गोबर मूत्र की सडांध चल रही थी! शायद वह ग्रामीणों के जानवरों व बकरियों के लिए बिन बनाया मकान का काम कर रही थी!

विंग कमांडर अविनाश बेहद धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति हुए उन्होंने जूते उतारे और मंदिर में जा पहुंचे! मुझे मंदिर में नहीं जाना था क्योंकि मेरे उन्हीं फार्मासिष्ट भाई को स्वर्ग सिधारे अभी साल भर नहीं हुआ था!

मैं फ़्लैशबैक के उन दिनों लौट गया जब आज से लगभग 15-16 बर्ष पूर्व मैं यहाँ आया था तब यहाँ सैकड़ों बकरियां इस गुफा की शोभा बढ़ा रही थी व उनके साथ कुछ भेडाल व खूंखार कुत्ते थे! मुझे पता है कि उन्होंने इस सम्बन्ध में मुझे एक कहानी सुनाई थी कि यहाँ पहले पांच भाई पांडवों की पत्नी द्रुपदा का महल व ताल था! जिसे आप रंगमहल कह सकते हैं! द्रुपदा रानी की तुलना यहाँ की मातृकाओं की देवी के रूप में की जाती रही है! कहते हैं इन्हीं मातृकाओं ने रानी द्रोपदी/द्रुपदा को अक्षत यौवना का आशीर्वाद दिया था जिसका यह प्रभाव था कि रानी के रंगमहल (राणीवास) में जब भी पांच भाई पांडवों में किसी एक भाई के बदले दूसरे भाई को उनके साथ रहने या सहवास का मौक़ा मिलता रानी द्रुपदा पुनः कुंवारी (वर्जिन) हो जाती थी! यह प्रसंग द्रोपदी को लेकर दक्षिण भारत के कई स्थानों पर माना भी जाता है! कई उसे माँ कामाख्या की कृपा मानते हैं! मुझे हैरत हुई कि यह कहानी बिलकुल अलग है!

मैंने प्रसंग को ज़िंदा रखने के लिए तत्कालीन भेडाल जिसका नाम कथीगु था से पूछा कि यहाँ तो तालाब कहीं नहीं दीखता फिर आप कैसे मानते हैं कि यहाँ तालाब है! उन्होंने चिलम पर कश लगाते हुए कहा- अरे कौन कह रहा है मानों! आप जैसे जितने भी पढ़े लिखे लोग आते हैं हमें मूर्ख ही समझते हैं! जाओ मैं नहीं बताता..! मुझे लगा मैंने गलती कर दी इसलिए मुस्कराकर मस्का लगाते हुए बोला- अरे भाई साहब, मेरा कहने का मतलब यह नहीं था! फिर वह धुंवा छोड़ता हुआ अंगुली सीढ़ी करते हुए बोला- ओ देखो यमुना पार..! जहाँ झाड़ियाँ दिखाई दे रही हैं न वही खांडव बन है! जहाँ जो जिस रास्ते घुसता है उस रास्ते कभी नहीं लौट पाता है वह एकदम भूल-भुलैया है! द्रोपदा की सहेली यक्षणीयां वहां और वो उपर जो लाखामंडल गाँव के पीछे धार (चोटी) दिख रही है न ! वहां से आकर द्रुपदा के साथ यहाँ रंगमहल में तब रहा करती थी जब पांडव नहीं होते थे! कहा जाता है कि जब कोई भी भाई पांडव द्रुपदा के रंगमहल में नहीं होता था तब ये यक्षनियाँ द्रुपदा के बदन पर ऐसी उबटन लगाती थी कि वह 12 बर्ष की कुंवारी कन्या बन जाती थी! एक बार वे उबटन मल कर हंसी-ठिठोली कर ही रही थी कि पुरुष की खुशबु उन तक पहुँच गयी व वे सब द्रुपदा को वैसे ही छोड़कर चली गयी! इस बार राणीवास में अर्जुन आ गए थे! द्रुपदा उबटन के बाद यक्षनियों से यमुना जल मंगाती थी उसके स्नान के बाद ही वह अक्षत यौवना बनती थी! रानी द्रुपदा को लगा कि आज उसके अक्षत यौवना का राज खुल जाएगा क्योंकि यमुना जल तो था नहीं इसलिए उसने माँ यमुना से प्रार्थना की कि वह आज खुद ही उसके पास चलकर आ जाय! माँ यमुना ने उसकी प्रार्थना सुनी और सुरंग मार्ग से महल में आ गयी जिससे रानी द्रुपदा ने स्नान किया! तब से लेकर वर्तमान तक इसे द्रुपदा के शत का ताल कहा जाता है!

कथीगु भेडाल कहाँ का था यह मैं नहीं जानता हूँ लेकिन उसके साथ का दूसरा भेडाल उसकी कहानी पर आपत्ति उठाते हुए जौनसारी भाषा या फिर रवांलटी भाषा में उससे भिड गया! मैं बोला लड़ते क्यों हो भाई! उनसे गलती हुई है तो मैं माफ़ी मांग देता हूँ..! वह बोला- अरे नहीं साब, मैं तो इसे कह रहा था कि सब तो ठीक है लेकिन यह गलत है कि यमुना जी से द्रुपदा ने वहां चले आने के लिए इसलिए नहीं बोला था कि उबटन हटानी है बल्कि इसलिए कहा था कि वह दुवस्था थी! मेरे मुंह से फूटा- दूवस्था..! वह बोला गर्भवती! और तभी यहाँ सुरंगों के माध्यम से यमुना जी का पानी पहुंचा! आप भी देख लीजिये इतनी उंचाई पर बलुवी मिटटी व गंगलोडे (गोलमटोल पत्थर जो नदियों में पाए जाते हैं!) बहुतायत मात्रा में हैं! इन सुरंगों के माध्यम से ही पांडवों ने लाक्षागृह से निकलकर अपनी जान बचाई थी जब द्रयोधन ने लाक्षागृह पर आग लगवा दी थी! तभी से इसका नाम लाखामंडल पड़ा!

मुझे बेहद गौर से सुन रहे विंग कमांडर अविनाश बोले- मनोज भाई, आप सचमुच बहुत अच्छे स्टोरी टेलर ट्रेवलर हो! आपको सलूट..! यह टूर हम जिन्दगी भर याद रखेंगे क्योंकि यह अब तक के जितने भी टूर हमने किये उन सबमें अलग व बेमिशाल रहा! मैं मन ही मन इसलिए खुश हुआ कि अपने न सही बाहर से आये मित्र तो हमारी पुरातन लोक संस्कृति लोक सभ्यता में ब्याप्त किंवदंतियों, कहानियों, कथा-ब्यथा का पूरी एकाग्रता के साथ श्रवण कर रहे हैं! मैंने घर आकर इस अक्षत यौवना पर पूरे वैदिक व साहित्यिक आलेखों के पढने की बात आज से 15-16 बर्ष पूर्व सोची थी लेकिन ब्यस्तता ने यह सब भुला दिया! आज कर्नल मदन मोहन कंडवाल जी के साथ हरिद्वार जाते हुए जब पांडव कालीन सभ्यता पर बात हुई तब दुबारा उन्होंने ही द्रोपदी के अक्षत यौवना नाम का उच्चाहरण किया तो मेरी बांछे खिल गयी! मन ही मन सोचा कि शायद तभी इस यात्रा वृत्त पर मैं अभी तक लिख नहीं पाया था! अक्षत यौवना का अगर शाब्दिक अर्थ लगाया जाया तो वह अक्षत- बिना टूटा हुआ चावल! यौवना- यौवन से भरपूर युवती लेकिन इसका भावार्थ अगर देखा जाय तो एक ऐसी लड़की जिसका कौमार्य भंग न हो! जिससे रति क्रिया न की गयी हो! या जो कौमार्यवती (कुंवारी) हो! मेरे होंठ सचमुच मुस्करा दिए क्योंकि अब मेरी समझ में आ गया था कि यमुना को लोग क्यों कुंवारी मानते हैं!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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