रानीगढ़-अदवाणी की जंगल सफारी। रहस्य रोमांच से भरे सफर में मिला दुर्लभ पथिया बाघ। वाइल्ड लाइफ का खजाना है पौड़ी का यह सबसे निकटम क्षेत्र।
◆ 18वीं सदी में गढ़वाल नरेश के सेनापति पुरिया नैथानी की खोज रहा यह वन क्षेत्र।
◆ यहीं छुपकर गढवाल रानी व उनके पुत्र की हुई थी प्राण रक्षा।
◆ सदियों पुराना ढाकर मार्ग । जिससे होकर तिब्बत तक होता था व्यापार।
◆ 1842 में डिप्टी कमिश्नर पौड़ी मिस्टर बैटन व उनके सहायक कैप्टेन ई. थॉमस ने इसे पड़ाव के रूप में चिन्हित किया।
◆ रानीगढ़ से मूसा की नाव तक गुप्त रास्ता।
◆ नैथाणा गाँव के पास आज भी मौजूद है हाथी बाँधने का स्थान।
◆ रानीगढ़ से बनेख, रानी गढ़ से नाहसैण, डांडा नागराजा, ब्यास चट्टी, देवप्रयाग का है शानदार ट्रेक।
◆यहाँ गोली लगने के बाद भी नहीं मरता है कोई जानवर।
◆ भर्तहरी की खिचड़ी खाकर इसी क्षेत्र में गौ-पालक पुरिया नैथाणी को प्राप्त हुआ था ज्ञान, बने सेनापति।
(मनोज इष्टवाल)
तब झुरझुरी वाली शाम ढल रही थी, जब मैं सुप्रसिद्ध शिकारी जॉय हुकिल व पत्रकार मित्र अजय रावत रैकी कर वापस “रसोई” द ढाकर.. में लौटे थे। अब तक ठाकुर रतन असवाल अपनी नींद से जग चुके थे व गर्म-गर्म चाय की चुस्कियां ले रहे थे। उन्हें शायद अफसोस था कि वे ऐसे समय पर क्यों सोये जब हमें घूमने जाना था। वे जॉय हुकिल से बोले- अब रात्री प्रहर के कुछ पल मेरे साथ वाइल्डलाइफ देखने के बचाकर रखिये, हम अदवाणी के उन विभिन्न स्थलों की सैर करेंगे जहाँ अक्सर सड़क मार्ग के करीब यहाँ वाइल्ड एनिमल विचरण करते दिख जाते है. हम आपको गढ़ नरेश के सेनापति पुरिया नैथाणी के उस गोपनीय स्थल की भी सैर करायेंगे जहाँ उन्होंने रानी व उनके पुत्र को कठैतगर्दी से बचाकर रखा. फिलहाल बातों का सिलसिला यूँहीं चलता रहा. शांय 08 बजे अदवाणी की ठंड हम सबको बोन फायर के करीब ले आई. रसोई से अब तक हमारे शाम की टेबल सज गयी थी! फिर मन बना क्यों न डिनर करने से पूर्व ही वाइल्ड लाइफ का आनन्द लिया जाय! मन बना और हम रतन असवाल की अल्काज़ेर में जा बैठे. मैं कैनन मार्क II, गो प्रो के साथ नाईट विजन कैमरे लिए जंगल सैर पर निकल पड़ा. इस समय अजय रावत “अजय” ने रेस्ट करना उपयुक्त समझा व उनका स्थान पत्रकार मित्र गणेश काला ने ले लिया. आगे की सीट पर जॉय हुकिल फोकस टोर्च के साथ, ड्राइविंग सीट पर रतन असवाल व पिछली सीट पर मैं व गणेश काला …मैंने रतन असवाल से अनुरोध किया कि अल्काज़ेर की टॉप रूफ खोल दें ताकि मैं खड़े होकर टोर्च व कैमरे का फोकस कर एक साथ दो काम कर सकूं. पहला जंगली जानवर दिखे तो टोर्च फोकस के साथ उसे कुछ देर स्थिर कर सकूं व उसकी खूबसूरत सी फोटो क्लिक कर सकूं. यकीन जंगल जिन्दगी का ऐसा शुकून ढूँढने के लिए वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर्स महीनों जंगलों की ख़ाक छानते हैं.
अदवाणी रानीगढ़ पर्यटकों को विभिन्न प्राकृतिक कृतियों की बौछार करती है जहाँ से आप हिमालय पर्वतमाला की मनमोहक बर्फ से ढकी चोटियों को देख सकते हैं। छत के खेत, पौड़ी शहर और घने जंगल भी। इस जगह पर मौसमी और प्रवासी पक्षियों को भी आसानी से देखा जा सकता है और यह जगह बर्ड वॉचिंग के लिए एक आदर्श स्थान है। यह जगह आयुर्वेदिक जड़ों और पौधों से भी समृद्ध है, जिनसे कई बीमारियों को दूर करने में सक्षम हैं। उत्तराखंड का राज्य फूल रोडोडेंड्रोन यहां प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। देवदार और देवदार के पेड़ों ने भी अदवाणी से 1 किमी के ट्रेक में एक बड़े क्षेत्र को कवर किया है। इस क्षेत्र का प्राकृतिक परिवेश इस जगह को आकर्षण प्रदान करता है और यह शांति भी प्रदान करता है।
धार्मिक महत्व:
शिखर की चट्टान पर भगवान आदेश्वर को समर्पित एक मंदिर है जिसे वर्ष 2002 में बनाया गया था। इस मंदिर का मेरे कई बार दौरा किया गया है। भक्तों और जगह का बहुत धार्मिक महत्व है। जिन चोटियों पर चंद्रबदनी, नीलकंठ, डंडा नागराजा, खैरलिंग, एकेश्वर महादेव, गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, तुंगनाथ, कालीमठ, देवलगढ़ जैसे कुछ प्रसिद्ध मंदिर स्थित हैं, उन्हें आदेश्वर मंदिर से देखा जा सकता है। प्राकृतिक सुंदरता के सही अर्थ को समझने के लिए इस जगह की यात्रा अवश्य करें।
प्रदीप शाह (राजामाता कनकदेई) पिता उपेंद्र शाह की मृत्यु 1716 में मात्र 22 बर्ष की उम्र में। इसके बाद इनके छोटे भाई दलीप शाह ने मात्र 1717 में राजकाज सम्भाला। लेकिन षड्यंत्र के कारण उनकी मौत हुई।
फतेशाह ही ऐसे राजा हुए जो पिता की मृत्यु के पश्चात 15 बर्ष की उम्र में सिंहासन में विराजमान हुए व राजमाता ने इस दौरान राजकाज देखा, लेकिन यह उनका दुर्भाग्य रहा कि वे अपने भाइयों की बातों में आकर ऐसे फैसले लेती रही, जिस से प्रजा में असंतोष फ़ैल गया और विद्रोह की चिंगारी फूटने लगी। उनके पांच भाई कठैत जोकि कांगड़ा से साथ आये थे, ने प्रजा पर स्यूंदी कर, चूल्हा कर इत्यादि लादना शुरू कर दिया। प्रजा में व्यापक असंतोष फैला और राज दरवारियों ने मिलकर इनके पांच भाई भगवत कठैत, आलम कठैत, महिपत कठैत, दयाल कठैत व कलम कठैत (भगोतसिंग, रामसिंग, उधोत सिंग, सब्बल सिंग, सुजान सिंग) को बंदी बना लिया व श्रीनगर से 10 मील दूर ले जाकर उनकी ह्त्या कर दी। प्रजा में भारी रोष देखकर प्रधान सेनापति पुरिया नैथाणी ने राजधर्म निभाया व बालक फतेशाह व रानी को रातों-रात हाथी में बैठाकर रानीगढ़ सुरक्षित स्थान पहुंचाकर उनकी प्राण रक्षा की व तब तक सेनापति शंकर डोभाल व स्वयं मिलकर राजकाज देखा जब तक प्रजा में सुख शांति नहीं फैली।
मार्च 1839 में पौड़ी गढ़वाल को जिले का दर्जा। 1840 में पौड़ी की स्थापना। 15 अगस्त 1836 में डिप्टी कमिश्नर पौड़ी मिस्टर बैटन।
कल्जीखाल विकास खंड के अंतर्गत हैड़ाखोली गाँव के तत्कालीन एडीसी टू वायसराय इन इंडिया एन्ड इंग्लैंड लाड सूबेदार बलभद्र सिंह ने के प्रयासों से सन् 1887 में थर्ड गोरखा राइफल्स की एक टुकड़ी रानीखेत से पैदल चलकर कालौं डांडा पहुंची, और तत्कालीन लार्ड लैंसडाउन के नाम कालौं-डांडा का नाम लैंसडाउन रखा गया ।
इस प्रसंग क़ो अदवाणी से जोड़ना उस समय की अनुकूलता क़ो दर्शाना है जिस समय के काल खंड में लोग कोटद्वार से ढाकर लेकर गढ़वाल के शेष भागों में ही नहीं बल्कि तिब्बत तक गुड़ नमक लेकर पहुँचते थे । यह ढाकर मंडी सन 1905 से पूर्व तक कोटद्वार के पहले गिवई स्रोत व सिद्धबली मंदिर के मध्य सड़क मार्ग पार स्थान पर लगती थी। आज भी आपको वहां झूला पुल के अवशेष देखने क़ो मिल जाएंगे ।
प्रसंग विस्तृत हो जाएगा इसलिए संक्षेप में बता दें कि 1905 से गढ़वाल राइफल्स ने एक छकड़ा मार्ग का निर्माण लैंसडाउन तक करवाया। तदोपरान्त सेठ सूरजमल द्वारा दी गई आर्थिक सहायता से 1920 में दुग्गड़ा तक पक्की सड़क का निर्माण हुआ लेकिन 1905 में गिवई स्रोत से पंडित धनीराम मिश्र के अथक प्रयासों के चलते सम्पूर्ण ढाकर मंडी गिवाई स्रोत से “बेहड़ी” (दुगड्डा) नामक स्थान पर शिफ्ट हुई जो 1944 बदस्तूर 40 साल तक ढाकर मंडी बनी रही ज़ब तक पौड़ी सड़क न आ गई।
अंग्रेजों द्वारा अक्टूबर सन् 1815 में ही पौड़ी कमिश्नरी की स्थापना कर पहले डिप्टी कमिश्नर के रूप में डब्ल्यू जी ट्रेल को नामित किया जो बाद में यहाँ कमिश्नर बने। तत्पश्चात बैटन बैफेट कमिश्नर हुए उसके बाद सबसे अधिक कार्यकाल हैनरे रैमजे का हुआ जो 1856 से लेकर 1884 तक गढ़वाल-कुँमाऊ के कमिशनर रहे और इन्हें नैनीताल में रामजी के नाम से जाना जाना था, तत्पश्चात कर्नल फिशर, काम्बेट व अंतिम गढ़वाल कमिश्नर पॉल हुए।
लेकिन अदवाणी पर जिस अंग्रेज की सबसे पहले नजर पड़ी वह डिप्टी कमिश्नर बैनट थे जिन्होंने दिसंबर 1836 में यह स्थान बर्फ में लकदक पाया और 1839 में यहाँ फारेस्ट बंगला का निर्माण करवाया। इसे शिकारगाह के रूप में विकसित किया । उन्हीं के दौर में यह किंवदंती प्रचलन में आई कि रानीगढ क्षेत्र में किसी जानवर क़ो गोली लग जाय तो वह थोड़ी देर मरने के बाद पुनर्जीवित हो जाता है ।
यह आश्चर्यजनक था कि तब यह क्षेत्र घनघोर जंगल क्षेत्र था इसलिए अपर गढ़वाल जिसमें पौड़ी से लेकर तिब्बत तक का क्षेत्र था के ढाकरी यहाँ रुकना पसंद नहीं करते थे क्योंकि यहाँ जंगली जानवरों का खतरा बना रहता था और साथ ही यहाँ कोई ऐसा रैनबसेरा नहीं था जहाँ रुका जा सके। ज्यादात्तर अपर गढ़वाल के लोग बांघाट के बाद कलेथ -नैथाना-कांसखेत -अदवाणी होकर टेका में अपना अगला पड़ाव ड़ालते थे जबकि ज्यादात्तर तिब्बती मूल के व्यापारी अपनी खडीनों (भेड़ -बकरियों) में लदे मार्ग के साथ पौड़ी झंडीधार रुका करते थे । अदवाणी न रुकने के पीछे अंग्रेज अफसरों का डर भी आम लोगों के मध्य था लेकिन रैमजे ज़ब गढ़वाल कमिश्नर बने तब उन्होंने गढ़वाली लोगो से सम्पर्क बढाना शुरू किया जिन्हे लोग रामझा साब पुकारते थे । कई का तो यह भी मानना है कि “रैमजे के कुशल व्यवहार से ही “रामझाणी” (राम ही jaane/रैमजे ही जाने) प्रचलन में आई लेकिन यह कम तर्क संगत लगता है।