*ढांगू की लोक कला व कलाकार।
संकलन – भीष्म कुकरेती
माई शब्द हमारे क्षेत्र में मंदिर या मठ में स्त्री महंत को कहते हैं या जिस स्त्री ने संन्यास ले लिया हो। ऐसी ही माई थीं कौंदा (बिछला ढांगू ) की मूळी माई। बाल विधवा होने के बाद मूळी ने सन्यास ले लिया था याने तुलसी माला ग्रहण कर लिया था किन्तु कोई मंदिर ग्रहण नहीं किया था। मूळी माई तिमली डबराल स्यूं के प्रसिद्ध व्यास श्री वाणी विलास डबराल की बहिन थीं या मुंडीत की थीं व कुकरेती ससुराल। मूळी नाम शायद विधवा होने या मूळया होने के कारण पड़ा होगा।
पूरे ढांगू (मल्ला , बिछले , तल्ला ) में वे मूळी से अधिक ब्वान वळी माई से अधिक प्रसिद्ध थीं। ढांगू के हरेक गाँव में उनकी जजमानी थी। वे बबूल (गढ़वाली नाम ) का ब्वान (झाड़ू ) बनाने में सिद्धहस्त थीं व हरेक गांव में कुछ ब्वान लेजाकर बेचतीं भी थी। ब्वान से लोग उन्हें चवन्नी या दो आना या बदले में अनाज दाल आदि देते थे। अन्य माईयों की तरह वे भीख नहीं मांगती थीं। जनानियां उन्हें प्रेम से भोजन पानी देतीं थीं व अपने यहाँ विश्राम करने में धन्य समझतीं थी। उनके बनाये ब्वान में कला झलकती थीं याने उनकी अपनी शैली /वैशिष्ठ्य होता था ।