(सचिदानंद सेमवाल की कलम से)
उत्तराखण्ड को पांडवों की धरती भी कहा जाता है। वनवास के समय, महाभारत के बाद शिवजी का पीछा करते हुए और अंत में स्वर्गारोहण के लिए पांडव लम्बी- लम्बी अवधियों के लिए इस धरती को और यह धरती पांडवों को परस्पर पावन कर चुके हैं। पंच केदार आदि उनकी अनेकानेक निशानियां यहाँ अभी भी मौजूद हैं।
प्रस्तुत चित्र वाला विशाल पत्थर यहाँ के जिला रुद्रप्रयाग मुख्यालय से 23 km दूर ग्राम_हाट_व_सौड़ी के मध्य अविरल प्रवाहमान मन्दाकिनी नदी के बीचोंबीच महाभारतकाल से विराजमान है। कहते हैं कि जब पाण्डव केदारधाम की तरफ जा रहे थे तो इसी स्थान पर महाबली भीमसेन के हाथ से सत्तू (जौ आदि का मोटा आटा) का गोला गिरकर मन्दाकिनी नदी में गिर गया और उसने दो भागों में टूटकर पत्थर का रूप धारण कर लिया। तभी से इस पत्थर का नाम सत्तूढिण्ढा( गढ़वाली शब्द 'ढिंढा' का हिन्दी अर्थ लगभग गोल पत्थर आदि वस्तु होता है) पड़ा।
कालान्तर में इसकी चोटी पर एक महात्मा जी भी कुटिया बनाकर रहे हैं। इसकी ऊपरी सतह पर चिनाई के अवशेष अभी भी दृष्टिगोचर होते हैं। पत्थर के बीच में जो दरार पड़ी है, उसी दरार से पत्थर की चोटी तक जाया जाता है। गांव की महिलाएं पत्थर की चोटी पर उगी घास काटने के लिए इसी दरार के रास्ते जाती हैं। कुछ गढ़वाली फिल्मों में भी इस पौराणिक पत्थर का फिल्मांकन किया गया है। मान्यता है कि इस पत्थर को स्पर्श करने अथवा दूर से भी इसके दर्शन मात्र से मनोकामना पूरी हो जाती है। अत:सभी धर्म में आस्था रखने वाले लोगों से अनुरोध है कि आप जीवन में एक बार इस पौराणिक एवं मनोकामना पूर्ण करने वाले दिव्य पाषाण का दर्शन अवश्य करें।
रुद्रप्रयाग से केदारनाथ राजमार्ग पर जाते हुए बस की बांयी खिड़की से आप इसको अपने से थोड़ी- सी दूरी पर आसानी से देख सकते हैं और वहाँ से वापसी में दांयीं खिड़की से।
केदारनाथ आपदा के समय जहाँ विकराल रूप धारण कर यह मन्दाकिनी नदी दूर दूर के बाजारों तक को तिनके की तरह उड़ा ले गई, वहीं यह भीमसेन का ढिंढा इसी नदी के बीच में स्थित होते हुए भी टस से मस नहीं हुआ। आप इतने ही बड़े ढिंढे से आश्चर्य चकित हो गये होंगे, एक जगह तो यहाँ भीमसेन की आधा किमी लम्बी एक ही पत्थर की चौर(जानवरों को चारा-पानी खिलाने पिलाने के लिए नांद) भी है!!