दयारा की वह आँछरी..! जो आज भी सपने में आकर फुर्र हो जाती है।
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 10अगस्त 2005)
आज नागपंचमी है और हम ऐसे स्थल की यात्रा के लिए निकल पड़े हैं, जो हिमालय की तलहटी में बसा मखमली बुग्याल है। यूँ तो उत्तरकाशी जनपद के सात ताल, नचिकेता ताल, हर्षिल सहित भागीरथी गंगा घाटी के कई रमणीक़ स्थलों के सफर का आनंद पूर्व में ले चुका हूँ लेकिन इस बार सोचा कि नागपंचमी में उपली रमोली स्थित भगवान नागराजा के सतरंजू के सीम अर्थात सेम के नागर्जा के दर्शन कर आऊं लेकिन विधि का विधान देखिये स्वीडन से मेरी मित्र वेरोनिका हारमैन, सिसीलिया व उनके एक अन्य मित्र एड्रिक ने मन बना रखा है कि वह उत्तरकाशी के रैथल के ऊपर दयारा बुग्याल की हसीन वादियों में विचरण करना पसंद करेंगी।
दरअसल इन लोगों से बरसों पुराना परिचय अपने होमटाउन पौड़ी से ही था इसलिए स्वाभाविक था हम चिट्ठियों में आपस में एक दूसरे की खबरसार ले ही लेते थे। सुबह देहरादून के द्रोण होटल के बाहर से ही टैक्सी मिल गई यहाँ से लगभग 200किमी. की दूरी उत्तरकाशी और वहां से लगभग 45 किमी आगे गंगुरी – मनेरी-कुमाल्टी होकर रैथल। मतलब करीब आठ घंटे की लगातार यात्रा..। सुबह नौ बजे यात्रा की और यकीन मानिये शांयकाल 7:15 पर हम उत्तरकाशी पहुंचे। अंधेरा घिर गया तो मन हुआ उत्तरकाशी ही रुका जाय। अभी योजना बन ही रही थी कि मेरे परिचित एक मित्र जगमोहन मिल गये। उन्होंने कहा आज रैथल जाना ठीक नहीं है आप यहीं रुको कल सुबह सबेरे मैं रैथल के ही दो तीन लोगों को आपके साथ भेज दूंगा जो आपके टैंट भी लगा देंगे, खाना भी बना देंगे और पोर्टर का काम भी कर देंगे। विस्तार देने की जगह इसे यहीं लपेटकर संक्षिप्त करते हैं क्योंकि फिर यात्रा वृत्त लम्बा होता जायेगा।
अगली सुबह होटल के रिसेप्शन पर तीन ठीक-ठाक कदकाठी के लोग जिनमें मोर सिंह, शेर सिंह व फते सिंह थे हमें लेने खड़े थे। उन्होंने कहा सर… आप अपनी टैक्सी फ्री करवा दीजिये हम यहाँ से टाटा सूमो से चलेंगे। आपका बेवजह का किराया भाड़ा बच जायेगा। हमने वही किया और सुबह सुबह की सरसराती ठंड जो जूतों और मौजों के रास्ते जींस के अंदर घुस रही थी, हमें अलसुबह ही एक घंटे बाद रैथल तक ले गई। यहाँ अभी जनजीवन अलसाया हुआ सा बिस्तर में कैद था। कुछ माँ बहनें जरूर दैनिक दिनचर्या निबटाती दिख गई थी। मोर सिंह ने किसी को आवाज देकर स्थानीय भाषा में कहा कि उनके यहाँ संदेश भेज देना कि वह पर्यटकों के साथ डांडा अर्थात दयारा बुग्याल जा रहे हैं कल या परसों लौटेंगे।
चलते चलते मैंने प्रश्न किया कि मोर सिंह भाई कितना समय लगेगा यहाँ से दयारा। वह बोले वैसे तो 7 किमी भी है 9 भी और 11 भी…। और वैसे पूरा दयारा तो करीब 28 से 30किमी में फैला है। आप चिंता न करें हम सुबह की चाय पीने छानियों तक पहुँच जाएंगे। घड़ी पर नजर दौड़ाई तो पाया समय सुबह 6:24 मिनट।
रैथल गाँव छोड़ने के बाद ही आप का सामना दम फुलाऊ खड़ी चढ़ाई के साथ होता है। यकीन मानिये करीब 3050मीटर की ऊँचाई तक पहुंचने के लिए हमें बहुत मशक्कत करनी थी। मेरे स्विडिश मित्र बने खुश थे वह ट्रैकर्स की मंदिम गति चाल से चलते हुए आगे बढ़ रहे थे। गले में लटके कैमरे, वाटर बोतल में मिक्स ग्लूकोज और कैप की बगल से टपकता पसीना..। जैकेट की जगह अब विंडचिटर उनके बदन में दिखाई दे रहे थे। मैं ठहरा ठेठ पहाड़ी… अपने उत्तरकाशी के मोर सिंह एंड कम्पनी के साथ उलझा आगे बढ़ रहा था। रास्ते में हम ही नहीं थे बल्कि माँ बहनें व पशुचारक व भैंसे इत्यादि भी आगे बढ़ रही थी। कोई छानियों से लौट रहा था तो कोई छानियों की ओर बढ़ रहा था। सच कहूं तो यह चढ़ाई अझेल नजर आ रही थी। पैर बढे कदम रखने का नाम नहीं ले रहे थे। मोर सिंह बोले साब… आप लोग आओ तब तक हम टेंट वगैरह फिक्स करते हैं। आपके साथ फते सिंह रहेगा क्योंकि आप लोग जिस स्पीड में हैं 5 से 6 घंटे में पहुंचेंगे। यूँ तो हमने मैगी, आलू, चना, तेल घी, ड्राई चाय, कॉफ़ी, फ्रूट्स मेडिसिन इत्यादि सब साथ रखी थी।लेकिन मोर सिंह बोला – तब तक हम छानियों से दूध की ब्यवस्था भी देखते हैं और जब तक आप पहुंचेंगे टेंट बगैरह लगाकर पराठे ब्रेड भी सेंक लेंगे। मुझे आईडिया अच्छा लगा तो हामी भर दी। अब हमने कहाँ पर चाय पी क्या गप्पें लगाईं, कहाँ कहाँ बैठे की जगह मैं बताता हूँ कि लगभग पौने एक बजे दोपहर हम थकावट से चकनाचूर होकर मोर सिंह एंड कम्पनी को दयारा में ढूंढ़ने के लिए नजर दौड़ा रहे थे कि दूर से आवाज़ सुनाई दी – ओ ले उब्बू ला उब्बू। फिर सीटी गूँजी। फते सिंह ने सीटी का जबाब सीटी में दिया और हम निढाल से तम्बू के पास मखमली बुग्याल में पसर गये।
करीब आधा घंटे बाद हमें गर्म दूध के साथ मोटे पराठे मिले। मैं सोचा कि स्विडिश हैं तो शायद नमक नहीं खाएंगे लेकिन वेरोनिका, फेड्रिक़ व सिसीलिया दो दो पराठे भचका गये। यही नहीं दो दो अंडे भी…। मैंने टेंट की पॉजिशन देखी तो एक़ बड़ा टेंट व उसकी बगल में छोटा टेंट व पास ही काली प्लास्टिक का किचन। मेरे मुंह से निकला.. अरे मोर सिंह भाई आप लोगों के सोने की व्यवस्था? वह बोले – अरे सर, हमारे लिए किचन में पर्याप्त व्यवस्था है। आप चिंता न करें। बिस्तर भी हमारे पास पर्याप्त है। अंग्रेजों के साथ एक परेशानी बहुत रही है। ये लोग सेल्फिश बड़े होते हैं। तीनों ने बड़ा टेंट कब्जा लिया। और ये भी नहीं बोला कि इष्टवाल आप भी इसी में रहोगे। बस फिर क्या था मेरी नाक लग गई। मैंने अपना तम्बू उखङवाया और कुछ ही दूरी पर एक शानदार धारनुमा स्थान पर उसे लगवा दिया। शेर सिंह कुछ बोलना चाह रहा था, मैं उस से पहले ही बोल पड़ा – अरे चिंता मत करो मुझे कुछ नहीं होता। डरने की बात नहीं है।
लाल सिंह कैंतुरा की गाथा कुछ सीमा तक जीतू बगड्वाल की गाथा के समान है। जीतू के प्राणों का हरण आछरियों ने किया था और लाल सिंह के जीवन का अंत भी आछरियों के कारण ही हुआ था।
लाल सिंह कैंतुरा के संबंध में हमें विस्तृत विवरण उन्हीं के वंशज कुशलपाल सिंह कैग और उनकी पुस्तक ‘भड़ लाल सिंह कैंतुरा की लोकगाथा’ में प्राप्त हुआ। इसके अनुसार टिहरी गढ़वाल (तब टिहरी रिसासत) की उपली रमोली के दोनगांव में संवत् 1828 को जन्मे लाल सिंह टिहरी रियासत के मालगुजार थे। उनके पिता का नाम नंदनू सिंह और मां का नाम देवकी देवी था। देवकी तिलोथ गांव के और विजूला की बुआ भी (नरू-बिजूला एक प्रसिद्ध प्रणय गाथा के प्रसिद्ध पात्र हैं।) लाल सिंह के पिता नंदनू सिंह टिहरी रियासत में रमोली पट्टी के मालगुजार थे। उनके चार पुत्रों में लाल सिंह कुशाग्र बुद्धि के थे, इसलिए नंदनू सिंह की मृत्यु के बाद लाल सिंह को ही मालगुजार नियुक्त किया गया। उनका एक विवाह उत्तरकाशी की गमरी पट्टी के बगोड़ी गांव में झोडकी देवी से हुआ । झोडकी के भाई धामसिंह भी मालगुजार थे। लाल सिंह का दूसरा विवाह मुखमाल गांव में भादी देवी से हुआ।
लाल सिंह को बंदूक चलाने और शिकार खेलने का बड़ा शौक था। एक दिन लाल रैथल के डांडा दयारा बुग्याल में अपने घोड़े और कुल्लों के साथ शिकार खेलने शिकार का पीछा कर रहे थे कि आछरियों और भराड़ियों ने उन्हें प्रभावित कर दिया। इन आत्माओं ने साथ ही लाल सिंह को 17 दिन का समय देते हुए कहा कि इस बीच अपने सगे-संबंधियों से भेंट कर लेना। इस अवधि के बीतने के बाद हम हरण करेंगी। लाल सिंह ने इस दिन की रात रैथल में राणों के परिवार में व्याही अपनी बहन रेणुका देवी के यहां बिताई, लेकिन आछरियों भराड़ियों की घटना उसे नहीं बताई। यह घटना किसी को न बताकर वे अंदर ही अंदर घुटते और दुःखी होते रहे। उनके मन में एक गहरा शोक और भय व्याप्त हो गया। वे अपने गांव लौटते समय कालवां के मैदान में बुरांस के वृक्ष की छाया में बैठकर तंबाकू पीने लगे। इस बीच फिर आउरियां-भराड़ियां प्रकट हुई। घोर विपत्ति में पड़े लाल सिंह के अंतर्मन की पुकार पर उनके इष्ट नागराजा एक बालक के रूप में प्रकट हुए और लाल के 17 दिन के वचन की बात किसी को नहीं बताएगा, तब तक कुछ नहीं होगा, लाल सिंह की समस्या का समाधान करते हुए कहा कि जब तक तू आछरियों-भराड़ियों के 17 दिन के वचन की बात किसी को नहीं बताएगा, तब तक कुछ नहीं होगा। लेकिन सुने यह बात किसी को बताई तो तत्काल मृत्यु हो जाएगी इस बात का लाल सिंह कैंतुरा ने पालन किया। 17 दिन बीत गए, लाल सिंह को कुछ नहीं हुआ, लेकिन लाल सिंह के मन से भय समाप्त नहीं हो पाया। एक वर्ष बीत गया, लाल सिंह चिंता में सूखकर अत्यंत दुर्बल हो गए। उनके खान-पान में भी परिवर्तन हो गया। एक दिन मां ने लाल सिंह से इस दुर्बलता और परेशानी का कारण पूछा तो लाल सिंह ने पूरी बात बता दी और उसी क्षण लाल सिंह के प्राण उड़ गए। साथ ही लाल सिंह के दोनों कुत्ते भी मर गए।
मृत्यु के दो वर्ष बाद लाल सिंह देवता रूप में प्रकट हो गए। तभी से उनकी नृत्यमयी उपासना की जाने लगी। इसके बाद रमोली के कई गांवों समेत बूढ़ाकेदार धानारी, भिलंग आदि स्थानों पर देवता रूप में अवतरित हुए और उन्हें नचाया जाने लगा। दीनगांव में कैंतुरा जाति के लोग प्रत्येक तीसरे वर्ष लाल सिंह का मंडन आयोजित करते हैं। गांव के निकट लाल सिंह का मंदिर स्थापित है।
लाल सिंह एक रक्तरंजित घटना के इतिहास से भी संबद्ध रहे हैं। दीन गांव के दक्षिण में खेतों का एक बड़ा चक है, जिस पर पूर्व में हेरवाल गांव, ओनाल गांव गरवाण गांव, सौंदी, मुखमाल गांव, घंडियाल गांव, मुखेम आदि 12 गांवों का अधिकार था। इस जमीन पर अपना ही अधिकार करने की ठान लाल सिंह ने महाराजा के वजीर चक्रधार जुयाल से कहा कि जहां तक मेरी दृष्टि जाती है, उतनी जमीन मुझे दी जाए। चक्रधर जुयाल और लाल सिंह इस प्रस्ताव को टिहरी की महारानी के समक्ष ले गए, वे मान गई। अन्य गांवों के लोगों को इसकी जानकारी मिली तो इस भूमि को लेकर महासंग्राम हुआ। इसमें कई लोग मारे गए और कई घायल हुए। अंत में रानी ने पूरी जमीन लाल सिंह को दे दी।
उपली रमोली क्षेत्र के लोगों से बिसौ प्रथा समाप्त करने का श्रेय भी लाल सिंह को ही जाता है। बताते हैं कि थाती, धानारी, उत्तरकाशी के प्रतिष्ठित व्यक्ति ठाकुर फतेसिंह परमार के पास तब खूब अन्न होता था। रमोली के लोग मार्गशीर्ष के महीने उनसे कोदा, धान, झंगोरा आदि अनाज लेकर आते थे, इस अन्न को जेठ के महीने , दुगुना करके देना होता था। इससे गरीब लोग परेशान थे, लेकिन यह उनकी विवशता भी थी। एक बार रमोली के लोगों पर फते सिंह का अन्न दुगुना-तिगुना हो गया सिंह के लोग रमोली में आकर लोगों को परेशान करने लगे तो लाल सिंह ह गए। उन्होंने लोगों के साथ विचार-विमर्श कर इस कुप्रथा को बंद कराने का निर्णय लिया। सभी लोग कालब डांडा में गए, वहां फते सिंह आया तो लोगों ने उसके घोड़े की लगाम काट दी। उसके नौकरों की पिटाई की गई और फते सिंह तथा लाल सिंह के बीच भयंकर युद्ध हुआ, फते सिंह पराजित हो गया। उसके पास रखे होली के उधार बिसी के अभिलेख जला दिए गए। उसे रमोली आने के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। तब से बिसौ की प्रथा समाप्त हो गई। लाल सिंह के मंडाण में उसकी वीरता और पराक्रम को इस तरह व्यक्त किया
जाता है-
तुम होला वीरू मा का वीर लाल सिंह जी।
तुम होला भइ मा का भड़ लाल सिंह जी।।
तेरु होलू गौं निसकु सेरू लाल सिंह जी।
आज मैंन धानारी जैक से उधार तोरौण लाल सिंह जी।।
उपरोक्त आधार पर कहा जा सकता है कि पवाड़े मध्यकालीन गढ़वाल के वीरों की गाथाएं हैं। इनमें अतिरंजना, कल्पना और सत्य घटनाओं का सुंदर समन्वय है। वीर -श्रृंगार एवं करुण रसों वाली ये गाथाएं एक प्रकार से तत्कालीन सामंतों के आपसी -विद्वेष और सत्ता संघर्ष की अभिव्यक्ति हैं ‘बलशाली की विजय’ के सिद्धांत को पुष्ट करते इन पवाड़ों में बुद्ध का केंद्र कुल मिलाकर सत्ता अथवा राज्य है। इसके अतिरिक्त नारी को लेकर भी लहू बहता है अपना हित साधने के लिए षड्यंत्र-प्रपंच की सहायता लेना पवाड़ों की मुख्य विशेषता उभरी है। पीठ पर वार करना वीरता का सिद्धांत नहीं है, लेकिन यहां यह सिद्धांत महत्वहीन लगता है।