(मनोज इष्टवाल)
अब आप कहेंगे कि क्या अजीब बात कर रहा है लेकिन सच है भाई ! जैसे अमेरिका में फारेस्ट हैं जंगल नहीं वहीं पहाड़ों में भीमल वृक्ष प्रकृति प्रदत्त तो नहीं लगता ! यह सोचना मेरा अकेला नहीं है बल्कि एक लम्बी चर्चा का ऐसा बिषय बना जिस पर यूँ तो चर्चा देहरादून से निकलते शुरू हो गयी थी लेकिन ज्यों ही हमने ऋषिकेश से गंगनहर पार कर अपनी स्कार्पियो राजाजी नेशनल पार्क के घुप्प घने जंगल में छोटी बिलायत को निकलने वाले रास्ते पर डाली यह चर्चा फिर शुरू हो गयी!
तारीख 29 मार्च 2018 समय दोपहर लगभग सवा दो बजे! ड्राइविंग सीट पर हाई फीड के निदेशक उदित घिल्डियाल, उनकी बगल की सीट पर पूर्व वाइल्ड लाइफ चीफ़ श्रीकांत चंदोला और पिछली सीट पर ओएनजीसी के जनरल मैनेजर शरद झिल्डियाल के साथ मैं ! बात उदित से शुरू हुई थी और रास्ते में यह इस प्रसंग पर समाप्त हो गयी थी कि यह भीमल वृक्ष मैदानी क्षेत्र में भी पाया जाता है या नहीं! कच्ची सडक पर अभी अभी हाथी की ताज़ी लेंड (गोबर) देखकर फिर उदित ने चर्चा शुरू की बोले- इष्टवाल जी कैमरा तैयार रखिये हाथियों का झुण्ड कभी भी दिख सकता है! श्रीकांत चंदोला बोले – नहीं अभी नहीं अभी हाथी इस तेज धूप में बाहर नहीं निकलेगा वह कहीं घनी छाँव में होंगे क्योंकि हाथी को धूप सहन नहीं होती क्योंकि उसकी मोटी चमड़ी पर पसीने के निकासद्वार नहीं होते! अरे वो देखो- अभी अभी ताजा पेड़ तोड़ रखा है हाथी ने! उदित की नजर कच्ची सडक पर लपकती उस अधमरी पेड़ की टहनी पर पड़ी जो वास्तव में ताज़ी टूटी हुई थी! शायद कोई एक डेढ़ घंटा पहले! अक्सर कम बोलने वाले शरद झिल्डियाल बोल पड़े- हाँ लगता तो है हाथी यहीं आस-पास होंगे! लेकिन श्रीकांत चंदोला ने इसे सिरे से नकार दिया ! फिर छिड़ी बात बात पेड़ों की…वाली बात प्रारम्भ हो गयी ! बिशाल बट वृक्ष की लताओं का फैलाव देख श्रीकांत चंदोला बोल पड़े- ये देखिये हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि!
खैर ऐसी चर्चा विभिन्न वानस्पतिक पेड़-पौधों के साथ गाडी आगे बढ़ रही थी! कच्ची रोड पर धूल उड़ रही थी तब प्रसंग वश उदित घिल्डियाल बोले- इष्टवाल जी, इस सडक के इस हाल के जिम्मेदार श्रीकांत चंदोला जी ही हैं! मैं प्रश्न करता उससे पहले ही उदित का जवाब भी आ गया कि यह सडक इन्हीं की देन है जिसमें आज डांडा मंडल के लोग चलकर अपने अपने गाँव तक पहुँच रहे हैं ! श्रीकांत चंदोला जी तपाक से बोल पड़े- अरे नहीं , नहीं रोड तो पहले पास हो गयी थी काम शुरू भी हुआ और फिर जाने क्यों अटक गया ! ऐसे में इस क्षेत्र के ग्रामीणों ने स्वयं रोड खोदनी शुरू की और इस दौरान कई पेड़ भी कटे! विभाग ने केश दर्ज किये लेकिन हमारी भी मजबूरी थी यह जानकार भी कि अगर ऐसा नहीं होगा तो रोड आगे बढ़ेगी कैसे हमें वृक्ष का सम्मान भी करना था! खैर सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच के मैंने चुनिन्दा लोगों को इसलिए बुलाया ताकि हम ग्रामीणों की समस्याएं समझ सकें व उनसे ये केस वापस हो जाय! बस इस रोड के लिए मैंने इतना जरुर किया कि इस पर अपने प्रयासों से उन सभी खड्डों को भरवा दिया जिन पर चलकर अक्सर ट्रक, व छोटी जीपें टकरा टकराकर बेकार हो जाती थी! मैंने इस रोड को छोटी गाड़ियों के चलने लायक तो बनाया!
बातें कब समाप्त होती हैं लेकिन यह जंगल पूरा करते ही तल्ला बनास की सरहद लांघकर हम जब मल्ला बनास पहुंचे तब पूरा गाँव सडक के उपर व नीचे भीमल वृक्षों से लकदक था! किसी पेड़ की शाखाएं बिलकुल ठूँठ के मानिंद थी क्योंकि थमाली दरांती से उनकी सारी टहनियां कटकर जानवरों के मुंह का ग्रास बन चुकी थी लेकिन फिर से हरी कोंपले अपनी कांति बिखेरती जैसे कह रही हों ! हम तो जीवन दायिनी हैं इसलिए आप जितना मर्जी हमें काटो छिलो हम फिर उगकर पशु पक्षियों के लिए आहार की व्यवस्था करते रहेंगे!
दिखने को तो यह एनी पेड़ों की भाँति एक पेड़ हुआ लेकिन ऐसा पेड़ जिस पर कभी ध्यान नहीं जाता इतना मानव जीवन के करीब की लाख कोशिश के बाद भी यह मनुष्यता के गुण नहीं छोड़ता शायद यही कारण है कि यह जंगलों में कहीं नहीं उगता बल्कि मानव बस्तियों का लाड दुलार दरांती व थमाली की धार ही इसके शैशवकाल का दुलार है! कोमल पत्तियाँ ही गाय भैंस के दूध को बढाता है व उसकी पौष्टिकता की मात्रा में सुधार करता है इसीलिए तो हमारी बद्री गाय का एक माणी दूध देशी गाय के 10 किलो दूध की पौष्टिकता रखता है व इसका एक किलो घी 2400 रूपये किलो तक बिकता है!
फिर चर्चा शुरू हुई और उदित ने प्रश्न छेड़ा सर..यह पेड़ आखिर किस प्रजाति में आता है व मैदानी भू-भाग में होता है कि नहीं? श्रीकांत चंदोला बोले- इसकी कई प्रजातियाँ होती हैं इसका लेतीं नाम ग्रेविया अपोजिटीफोलिया है! इसकी ऐसी नस्ल मैदानों में तो नहीं होती लेकिन इसकी अन्य प्रजाति मैदानी भू-भाग में देखने को मिल जाती है! यह पेड़ इस क्षेत्र में प्रकृति प्रदत्त नहीं है बल्कि मानवप्रदत्त है क्योंकि अगर यह प्रकृति प्रदत्त होता तो यह जंगलों में भी होता! इसे मानव से प्यार है और यह अक्सर आबाद बस्ती आबाद खेतों की मुंडेरों पर उगने वाला बेहद लाभकारी पेड़ है! लेकिन अफ़सोस इस पर अभी तक व्यापक रिसर्च हुआ है!
शरद झिल्डियाल बोले- औषधीय गुणों की भरपूरता तो है इसमें क्योंकि इसकी छाल से सैम्पू, सेलु (सण) व लकड़ी से उजाला किया जाता रहा है! श्रीकांत चंदोला बोले- सिर्फ यही नहीं इसकी कोमल पत्तियों को गाय भैंस को तो खिला देने में कोई दिक्कत नहीं लेकिन बछड़ो को नहीं खिलाया जाता क्योंकि उनके घुटने मुड जाने का डर रहता है! वे बोले देखिये –हमारे पूर्वज जिन्हें हम अशिक्षित कहते थे कितने विद्वान् रहे होंगे! जाने यह पौधा वे कहाँ से यहाँ अपने साथ लाये और उनका कितना इस पर ध्यान रहा होगा कि यह उनके निकट रहे ताकि जानवर व मनुष्य इसके गुणों का बराबर फायदा उठा सके! इसकी पत्तियों को जानवर खाता है! इसकी नंगी बेतनुमा डंडियों को मनुष्य तीन महीने तक पानी के छोटे छोटे पोखरों में भिगोकर जब उन्हें बाहर निकालता है तब उन्हें पत्थरों पर पटककर उसके मुलायम रेशों को अलग करता है जिसे सेलु कहते हैं! पूर्व में इसी के वस्त्र पहनने का चलन था जो मानव सभ्यता के साथ कम होता रहा बाद में इसके रेशों से बनी रस्सियाँ घास लकड़ी ढोने, गाय बच्छियों, भैंस बैल, भेड़, बकरी, घोड़ा खच्चर को बाँधने के काम लाया गया! इसकी नंगी डंडियों को सुखाकर शानदार आग जलाने व रौशनी करने के काम लाया गया और तो और उसके पेड़ की चाल को कूट-कूटकर पहले हमारी माँ बहने अपने बालों को मुलायम बनाने का काम करती थी अर्थात इसे सैम्पू के तौर पर इस्तेमाल करती थी! बचपन में इसके बीजों का स्वाद सभी बच्चे लेते थे बल्कि पक्षियों का यह बेहतरीन चारा होता है! इसकी छाल को उबालकर गोमूत्र के साथ मिलाकर सूजन वाली जगह या कटे स्थान पर लगाने से तुरंत फायदा मिलता है!
यकीनन इस चमत्कारी पेड़ की महिमा का बखान सुनना अपने आप में विस्मित कर देने जैसा है! एक पेड़ से इतने फायदे शायद ही होते होंगे जितना भीमल वृक्ष से होता है! इस वृक्ष को भ्युन्ल, भिंवळ, भेमल, भीकू, भीमू इत्यादि नामों से भी गढ़-कुमौ में जाना जाता है! यह अक्सर 2000 मीटर की उंचाई सेउगना शुरू होता है! इतना लाभकारी पेड़ होने के बाद भी यह पेड़ किसी शुभकार्य में शामिल होता होगा ऐसा कहीं नहीं हैं यह आश्चर्यजनक सत्य चौंकाने वाला लगता है जबकि यह पेड़ मनुष्य की दिनचर्या का सबसे सुलभ व संस्कारिक पेड़ कहा जा सकता है जिसके जड़ से लेकर शीर्ष तक सारा उपयोग होता है फिर भी यह मनुष्यता से बंधा ऐसा वृक्ष है जो रोज मनुष्य की दरांती थमाली के घांव सहता है और फिर पनपकर हंसने लगता है! और तो और यह उसके पेड़ भरने के लिए राख बन जाता है! होली दीवाली व चिता में हमारी खुशियों के कारण शहीद हो जाता है फिर भी हम इसे दुत्कारते ही रहे हैं शायद इसलिए कि यह हमारे लिए प्रकृति प्रदत्त नहीं बल्कि कोई ऐसा सौतेला वृक्ष रहा है जिसे हमारे पुरखे कहीं दूर देश से लाये हैं! श्रीकांत चंदोला कहते हैं- इष्टवाल जी, मनुष्य ने कभी पेड़ पौधों से विनती कर मांगना नहीं सीखाजबकि ये सभी औषधीय पादप हैं! काश…हम इसकी पत्तियाँ, जड़ें या पुष्प लताओं को अपने रोगों के निवारण से पूर्व याचना भाव कर तोड़ते तो हमारी प्राकृतिक संपदा हमारे साथ बरकरार रहती लेकिन हमने इन जंगलों के पेड़ पौधों के साथ जंगलियों जैसा ही व्यवहार किया जिसके कारण आज सैकड़ों प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं और पनप रहे हैं तो वो पौधे जिन्हें हम तोड़ना भी पसंद नहीं करते ! सचमुच ऐसी यात्राएँ बड़ी दिलचस्प होती हैं जो जल जंगल जमीन के महत्व को ही नहीं बल्कि पशु पक्षी प्रेम को भी बरकरार रखें लेकिन प्रकृति एक दूसरे की हमेशा ही पूरक रही है इसलिए मिटना बनना बनाना सब हमारे ही हाथों होता है आइये ऐसे औषधीय गुणों युक्त भीमल को ज्यादा से ज्यादा उगाने का प्रयत्न करें जो सिर्फ हमारी जरूरतें नहीं बल्कि पशु पक्षियों की जीवन का माधुर्य भी बनाए रखे!