Thursday, December 12, 2024
Homeउत्तराखंडउत्तराखंड में क्यों होती है गौ-बालण पूजा!

उत्तराखंड में क्यों होती है गौ-बालण पूजा!

(मनोज इष्टवाल)

गाय संसार का एकमात्र एकलौता ऐसा प्राणी है कि वह या उसका बछड़ा जब रंभाता है तो उसके मुंह से माँ शब्द निकलता है! ऋग्वेद के अनुसार धरा को सोम देने वाली देने वाले तीन मूलक भारत हैं जिनमें माँ का दुग्ध, गौ दुग्ध व गंगा जल है इसीलिए इन तीनों को माँ शब्द दिया गया है! गंगा का गौमुख में जब अवतरण होता है तब वहां भी उसके वेग में माँ शब्द का गुंजायमान होता है! बच्चे के जन्म में भी और गाय के मुंह से भी माँ शब्द ही निकलता है अत: ये तीनों ही अमृत देने वाले हैं!

यह तो शास्त्रों में सर्वविधित है कि ब्रह्मा जी ने श्रृष्टि रचना से पूर्व गौ यानि गाय को पृथ्वी में भेजा! जिसमें ब्रह्मा व बिष्णु गाय के सींगों के मूल भाग में, शिब मध्य भाग में, गौरी ललाट में व कार्तिकेय नाशिका में विराजमान हुए!

उत्तराखंड में गाय या भैंस ब्याहने के बाद ठीक 11वें दिन बधाण/बधवाण या बालण पूजा का प्राविधान है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार किसी बच्चे के जन्म के बाद घर के शुद्धिकरण 11वें दिन में किया जाता है! बालण पूजा अब भी गाँवों में होती है इस पर भी मिथक शुरू हो गए हैं क्योंकि अब लोग गाय या भैंस के खूंटे पर ही बालण पूजा शुरू करने लगे हैं!

मेरे गाँव में गाय की बालण पूजा हमारे घर के नीचे एक खेत में बने आले में होती थी जिसके पास खिन्ने का पेड़ हुआ करता था, वहां पूजा जाता था जबकि भैंस का बालण मल्ली डिग्गी (पनघट) व मढ़ी के नीचे स्व. बलवंत सिंह बिष्ट/स्व. त्रिलोक सिंह बिष्ट के बंसफेड (बांसबाड़ा) के पास एक आले में पूजा जाता था! दोनों जगह एक बात एक सी थी कि आले में एक गंथर पत्थर रखा रहता था! बालण पूजा में तीन फांखों वाला खिन्ना तोड़ा जाता था जिसे त्रिकालदर्शी गाय का रूप दिया जाता था! आचार्य बिमल मलासी बताते हैं कि यह गौ स्वरूप के रूप में प्रातः, मध्यहान व सांयकाल का प्रतीक माना जाता है!

गौ बालण पूजा में कम भीड़ रहती थी क्योंकि वहां सिर्फ गेहूं के आते व गुड से निर्मित लगड़ी , कच्चा दूध, दही, गुड, धूप, पीली पिठाई, नाला ही होता था जबकि भैंस के बालण पूजन में लगड़ी, हलुवा, खीर, दही, दूध, घी, छांछ, पीली पिठाई, नाला, धूप इत्यादि हुआ करता था! पूजन विधि एक सी थी लेकिन मेरे पिताजी का मानना था कि भैंस का घी कभी भी दीप-धूप हवन में नहीं चढ़ाया जाता क्योंकि ऋगवेद में वर्णित आलोच्य ऋचाओं में गौ के अतिरिक्त अन्य दूध देने वाले पशुओं का उल्लेख नहीं है! इसलिए गाय बालण ज्यादा बड़ा होना चाहिए!

मैं इस तर्क से कभी सहमत इसलिए नहीं होता था क्योंकि गाँव की कोई भी गाय दो माणी अर्थात आधा किलो से ज्यादा दूध देने वाली नहीं थी! फिर हर कोई गाय हमारी कपोत्री गाय की तरह तो हो नहीं सकती थी जो आधा बाल्टी दूध दे! खैर बालण संस्कार में सर्वप्रथम पंदेरे के पानी से लोटा भर पानी लाकर गंथर नामक पत्थर को धोया जाता था अब यह तो कह नहीं सकता था कि उसे किस देवता का प्रतीक माना जाता था फिर भी मुझे बताया जाता था कि ॐ अपवित्रपवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपी वा | य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाहान्तर : शुचि: !! के साथ सुधिकरण कर गंथर व खिन्ने के त्रिकालदर्शी को तिलक करें!

आचार्य बिमल मलासी का कहना है कि तिलक करते समय “केशवानन्न्त गोविन्द बाराह पुरूषोत्तम । पुण्यं यशस्यमायुष्यं तिलकं में प्रसीदतु ।।” तदोपरांत धूप करें और मंत्रोचारण करें भौदीप देवरूपस्या कर्मसाक्षी यविनकर्ता, यावत कर्म समाप्ति तावत्वं सुथिर:भव!! फिर त्रिकालदर्शी पर रक्षासूत्र नाला बांधे व मंत्रोचारण करें ” येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।” फिर दूध चढ़ाए और गायत्रीमन्त्र पाठ करें “ॐ भूर्भव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।” फिर जितने भी पकवान हैं वह चढ़ाए जाते हैं और बालण देवता को समर्पित करते समय कहा जाता है-

नैवेद्यं गृह्यतां देव भक्तिं में ह्यचलां कुरु । ईप्सितं मे वरं देहि परत्र च परां गतिम् ।।शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च । आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ।।

सचमुच यह सब अगर बालण पूजा में सम्मिलित माना जाता है तो आम आदमी के वश में यह सब नहीं है! मुझे तो बस दो ही मन्त्र आते थे एक जो मैंने प्रारम्भिक दौर में बताया व दूसरा मैं सोचता था कि जो गंथर या गोबर की दहेली बनाई जाती है वह गणेश का स्वरूप है अत: बडबडाया करता था – ”एक दंताये धि वि​धमाहि, वक्रतुंडाये धिमाही, तनोदंति प्रचोदयात।” या फिर ”ॐ नमो ब्रत्पत्ये नमो गणपतये नम: प्रथम पतये नमस्तेस्तु, लम्बोदराय क दंताये विघ्नविनासिने शिव सुताये श्री वरद मूर्तये नमो नम। ”

ब्राह्मण कुल में जन्मा होने के कारण इतना तो पता था था कि गायत्री मन्त्र या यह मन्त्र 11 या 21 बार बोलो तो शुद्ध होता है लेकिन एक तो करछी में अंगारों में पिघलते घी की खुशबु उपर से लगड़ी का स्वाद. लसपस्या खीर व अन्य पकवान भला इतना सब्र कहाँ देते थे कि शुद्ध मंत्रोचारण भी कर सकूं! बस राजपूतों का गाँव था तो अक्सर मुंह के अंदर कुछ भी बडबडा दिया तो सोचते थे कुछ बोल रहा है मन्त्र ही बोल रहा होगा लेकिन अब किसी को ठगाना मुश्किल काम है क्योंकि आम ब्राह्मण से ज्यादा यह विद्या अब अन्य कुलों को ज्यादा भा रही है व वे जानते हैं कि ब्राह्मण मन्त्र शुद्ध बोल रहा अहै या अशुद्ध!

सच कहूँ तो तब शायद ही कोई बालण पूजा विद्या की जानकारी जानता हो ! मेरा तो आज भी दावा है कि आज भी ज्यादात्तर लोगों को पता नहीं है कि बालं पूजते समय कुछ मन्त्र भी बोले जा सकते हैं! हमारे गाँव में अब बमुश्किल एक भैंस होगी गाय भी लगभग आंगन छोड़ चुकी हैं! बालण पूजने लोग कितने सालों से उन स्थानों में नहीं गए जहाँ इन्हें थरपा गया था मैं भी नहीं जानता क्योंकि अब सब गाय या भैंस के खूंटे पर ही काम चला दिया करते हैं! बेचारे कौवे व कुत्ते का हिस्सा भी स्वयं हडप जाते हैं! जाने क्यों यह देवभूमि इतनी दूषित सी हो गयी है कि यहाँ से धर्म कर्म सब दूर हो गया है व आडम्बर ने लवादा ओड़ लिया है!

बालण से पूर्व पीसू व लैरा दूध सबने खाया व पीया होगा अलेकिन कोई नहीं जानता कि बालण देवता का जन्म कैसे हुआ! ऋग्वेद की ऋचाओं का अगर अध्ययन किया जाय तो उसकी वैदिक संस्कृति में यह सब मिल जाएगा ! कामधेनु गाय के पृथ्वी अवतरण का धर्म ग्रन्थों में बर्णन हम सभी जानते हैं ! आज भी राजा सहस्त्र बाहू का बडकोट व जमदग्नि ऋषि का थान गाँव यमुना घाटी में है जहाँ कामधेनु गाय का स्वर्ग से अवतरण हुआ था ! उसके अवतरण से पूर्व जो गौ पूजा हेतु पकवान बने उनका ऋग्वेद में भी वर्णन मिलता है! इनमें अपूप अर्थात अपूपवन्तम शकोरा (ऋग्वेद ३.५२.१०) में गेहूं व जाऊ के आते का पकवान (पिंडी), कशिका में गुडापूपतिलापूप (ऋग्वेद ३.५२.७) गेहूं गुड व तिल से निर्मित पकवान अर्थात लगड़ी, करम्भ (ऋग्वेद ३.५२.७) दही सत्तू का मिश्रण, पुरोडाश-सायण में लिखा गया है कि यज्ञ के अवसर पर पकाई गयी रोटी पुरोडाश कही जाती है (पक्वपिष्टपिणपुरोडाश: ऐत.सा.) इत्यादि भी गौ पूजन या बालण पूजन में प्रयुक्त की जाती थी !

वहीँ रीठाखाल पौड़ी गढ़वाल में संस्कृत विद्यालय के अध्यापक सचिदानंद सेमवाल लिखते हैं कि बालण पूजा की कथा इस तरह है : पहले गणेश जी का पूजन चूल्हे की बगल/ खांदे में किया जाता था । कहते हैं उस समय गणेश जी साक्षात् आते थे और उनके हाथ में खीर रखी जाती थी । एक दिन एक बुजुर्ग माता ने जल्दी में गरम खीर गणेश जी के हाथ में रख दी और गणेश जी का हाथ जल गया । उस दिन के बाद गांव की गाय-भैंसों ने दूध देना बंद कर दिया ।
इस बात पर चिंतित लोग किसी साधु के पास गये और पूरा वृतांत बताया । साधु ने कहा कि गणेश जी के हाथ में गरम खीर रखने से बहुत जलन से वे रुष्ट हैं और अब उनकी पूजा शीतल जगह : पानी के स्रोत में की जाय । इस निश्चय के साथ लौटने पर पुन: गांव की गाय- भैंसों ने दूध देना शुरू कर दिया और गांव पुन: दूध,दही और मक्खन से सम्पन्न हो गया ।

बहरहाल यह सच है कि जब से हमने अपने धर्म कर्मों को अपनाना बंद कर दिया है तब से हमारे खेत खलिहान बंजर पड़ गए व गौ धन न होने से गाँव की खुशहाली अब रीच, बानर , जंगली सूअर, बाघ इत्यादि ने हर ली है!

आज भी यह कटु सत्य है कि सफेद गाय जिसे कामधेनु का रूप समझा जाता है उसे पुरोडाश यानि सफेद रोटी खिलाने से पितृ दोष समाप्त हो जाता है ऐसा शास्त्रों में वर्णन मिला जाता है!

   

Himalayan Discover
Himalayan Discoverhttps://himalayandiscover.com
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
RELATED ARTICLES