(पार्थसारथि थपलियाल)
प्रगतिशील विचारधारा के प्रमुख स्तंभ मंगलेश डबराल जी अब हमारे बीच नही रहे। वे भारत के उन चंद कवियों में से एक थे जिनका जीवन ही काव्य था। मेरी पहली मुलाकात उनसे संभवतः 1990 के आस पास जोधपुर में हुई थी। वे काजरी में किसी काम से आये हुए थे। शाम को रघुनाथ धर्मशाला में उनका काव्य पाठ जोधपुर साहित्य परिषद और अन्य संस्थाओं के माध्यम से किया गया था। उस दिन रघुनाथ धर्मशाला में अमृत वर्षों हो रही थी। प्रसिद्ध शायर शीन काफ निजाम, हबीब कैफ़ी, ए डी राही, मरुधर मृदुल, मीठेश निर्मोही, डॉक्टर सावित्री डागा, डॉ राम प्रसाद दाधीच, डॉ. कौशल नाथ उपाध्याय, विष्णुदत्त जोशी, मदन मोहन परिहार आदि सभी प्रतिष्ठित साहित्यकार उनके सम्मान में पुष्पहार के साथ उपस्थित थे। सामान्य कद काठी और सहज सामान्य से दिखनेवाले कवि का उतना बड़ा सम्मान… हर कोई उनसे मिलने, हाथ मिलाने की कोशिश कर रहा था। उस कार्यक्रम उन्होंने अपने कविता पाठ की शुरुआत अपनी कविता “पहाड़ पर लालटेन” से की। अद्भुत संवेदनाएं भाव, अभाव और प्रभाव को समेटे हुए पहाड़ से भी ऊंचे संघर्ष की व्यथा रात को पहाड़ की चोटी पर बसे घर की तिबारी में लटकी टिम टिमाती लालटेन की तरह आशा को बढ़ाती है। हर अंधेरे के पीछे सूर्य की किरण भी है। अन्य कविताओं में जो मुझे याद है वह थी “केशव अनुरागी” अद्भुत जीवन दर्शन है। यह भी हमारे समाज की विडंबना है कि स्वीकार्य को भी अहंकार के कारण मान्यता नही देता। केशव अनुरागी एक महान संगीतकार। जिनका जन्म कोटद्वार से सतपुली की ओर जाते हुए गुमखाल से 8 किलोमीटर की दूरी पर है। गांव का नाम है कुल्हाड। इसी गांव में केशव अनुरागी का जन्म औजी परिवार में हुआ, पांचवी तक गाँव मे फिर लैंसडौन और बाद में देहरादून में पढ़ाई की। ढोल इनके गले मे बचपन मे ही पड़ गया था। उनकी बड़ी वेदनाएं थी जो तब मुखरित होती जब वे तरंग में होते। रक्षा लेखा में सेवाकाल के दौरान ही उन्हें आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी (संगीत) के रूप में काम करने का मौका मिला, उनकी पुस्तक नाद नंदिनी और ढोल सागर गढवाली संस्कृति की विरासत हैं। मंगलेश डबराल जी ने अपनी कविता में उस दर्द को दिल से महसूस किया। पूरी कविता अनुरागी जी और हमारे समाज के खोखलेपन को व्यक्त करती है।
मंगलेश डबराल जी का जन्म मई 1948 को टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में हुआ था। मैंने आकाशवाणी बुलाकर उनका इंटरव्यू लिया था। तब उन्होंने बताया था कि उनके दादा जी मूल रूप से पौड़ी गढ़वाल के डाबर स्यूं पट्टी के डाबर गाँव के थे, जिन्हें उनके यजमान टिहरी ले गए थे। टिहरी शासन के दमनकारी प्रवृति के कारण उस समय बहुत से युवा वामपंथ की ओर मुड़े। उनमें से डबराल जी भी एक थे। मंगलेश डबराल जी ने अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में साहित्य संपादक के रूप में काम किया। उनमें से जनसत्ता भी एक समाचार पत्र है। उन्हें अनेक सम्मान भी मिले, जिनमे हिंदी साहित्य अकेडमी पुरस्कार भी शामिल था।
मंगलेश जी कुछ समय से कोरोना पीड़ित थे। 9 दिसम्बर को एम्स (दिल्ली) में उन्होंने अंतिम सांस ली। डबराल जी अनंत यात्रा में चलते हुए “पहाड़ पर लालटेन” को बुझा कर “केशव अनुरागी ” के अनहद नाद- ढोल सागर में समा गए। उन्हें नमन।।